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________________ 222 :: मूकमाटी-मीमांसा ही समाजवाद है। समाजवाद-समाजवाद चिल्लाने मात्र से समाजवादी नहीं बनोगे'-- समाजवाद की परिभाषा दी गई है। धन-संग्रह के बदले जन-संग्रह करने का आह्वान किया गया है कि 'लोभ के वशीभूत होकर अँधाधुन्ध संकलित का समुचित वितरण करो, अन्यथा धनहीनों में चोरी का भाव जागता है, जागा है। चोरी मत करो, चोरी मत करो- यह कहना केवल धर्म का नाटक है, उपरिल सभ्यता, उपचार मात्र ।' कवि ने इन पंक्तियों में बताया है कि 'चोर इतने पापी नहीं होते जितने कि चोरों को पैदा करने वाले होते हैं। तुम स्वयं चोर हो और चोरों के जनक भी। सज्जन अपने दोषों को कभी छुपाते नहीं, छुपाने का भाव भी नहीं लाते मन में, प्रत्युत उद्घाटित करते हैं उन्हें ।' रावण और सीता के उदाहरण के द्वारा सन्त कवि ने यही बात स्थापित की है। ‘आज असत्य के सम्मुख क्या सत्य का आत्म-समर्पण होगा? क्या सत्य, असत्य से शासित होगा ? आज जौहरी के हाट में हीरक-हार की हार ! काँच की चकाचौंध में हीरे की झगझगाहट मरी जा रही है । क्या अब सती अनुचरी हो व्यभिचारिणी के पीछे-पीछे चलेगी? असत्य की दृष्टि में सत्य भी असत्य हो सकता है।' ऐसी नीच स्थिति से हमारा समाज मैला पड़ा है । क्या सन्त कवि का संकेत समाज की इस प्रकार की बुरी हालत से तो नहीं है ? “नाव की करधनी डूब गई/जहाँ पर लिखा हुआ था-- 'आतंकवाद की जय हो/समाजवाद का लय हो भेद-भाव का अन्त हो/वेद-भाव जयवन्त हो'।” (पृ. ४७३-४७४) यह एक नूतन समाज की विभावना नहीं तो फिर क्या होगा ? परन्तु आतंकवाद व्याकुल-शोकाकुल होकर पश्चात्ताप करता है । आतंकवाद का अन्त होता है। परिवार के प्रति-सदस्य से दल के प्रति-सदस्य को सहारा मिलता है। नव-जीवन का श्रीगणेश, कुम्भ के मुख से मंगल-कामना की पंक्तियाँ : “यहाँ सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें-/अमंगल-भाव/सब की जीवन लता हरित-भरित विहँसित हो/गुण के फूल विलसित हों। नाशा की आशा मिटे/आमूल महक उठे/"बस !" (पृ. ४७८) कुम्भ की साधना से, साध्य प्राप्ति से, धरती माँ सन्तुष्ट हुई। कुम्भकार ने कहा कि ऋषि-सन्तों की कृपा से एक सेवक के नाते उसने कुम्भ को रूप दिया । आतंकवाद को आतंक से विजय क्षणिक महसूस हुई। इस प्रकार हम देखते हैं कि 'मूकमाटी' एक आध्यात्मिक महाकाव्य है जिसके माध्यम से केवल आध्यात्मिकता ही नहीं, आधुनिक समाज का सही -- यथार्थ चित्रण भी हो पाया है । 'मूकमाटी' मोक्ष की ओर प्रयाण करनेवाली अनश्वर आत्मा का ही नहीं, प्रत्युत, लक्ष्य की ओर बढ़ने वाले आम आदमी का भी रूपक है जो संघर्षशील है, जिसकी अग्नि-परीक्षा हो रही है और संघर्षों की धूप में तपकर अग्नि में झुलसकर जो निखर आया है, पक्का एवं पाक बना है। सन्दर्भानुकूल सन्त कवि ने अनेक सामाजिक यथार्थ भी उजागर किए हैं । आधुनिक हिन्दी काव्य-साहित्य कोश में 'मूकमाटी' एक अमोल रत्न है जो अपनी मूकता में अनेक धार्मिक-दार्शनिक-आध्यात्मिक-सामाजिक सार को छुपाए रहती है, जिसके आवरण को अनावृत करने से प्रत्येक राज एक-न-एक के रूप में हमारे सम्मुख असलियत का रूप धारण कर उतरता-उतरता प्रकट होता है । कथ्य की दृष्टि से ही नहीं, शिल्प की दृष्टि से भी 'मूकमाटी' की निजी विशेषता है । शब्दों का खिलवाड़ इसकी सुन्दरता में चार-चाँद लगाता है । शब्दों को उलट-पुलटकर अनेकार्थ प्रतिपादन सन्त कवि की शब्द-पटुता को व्यक्त करता है । कवि ने शब्दों को सार्थक बनाया है । मुक्त छन्द में रूपायित यह रचना
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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