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मकमाटी-मीमांसा ::223
प्रवाहमयी भाषा से, ओजयुक्त काव्यपटुता से नवनवोन्मेषशालिनी बनी हुई है। भाषागत कुछ उदाहरण :
0 "रति-पति-प्रतिकूला-मतिवाली
पति-मति अनुकूला गतिवाली।" (पृ. १९९) 0 “वपुषा - वचसा - मनसा/एक ही व्यवहार।" (पृ. २७५) ० "क्या दर्शन और अध्यात्म/एक जीवन के दो पद हैं ?" (पृ. २८७) ० "दर्शन का आयुध शब्द है-विचार/अध्यात्म निरायुध होता है
सर्वथा स्तब्ध - निर्विचार !/एक ज्ञान है, ज्ञेय भी
एक ध्यान है, ध्येय भी।" (पृ. २८९) कवि की कवित्व भावना के कुछ उदाहरण :
"दाँत मिले तो चने नहीं/चने मिले तो दाँत नहीं ।
और दोनों मिले तो"/पचाने का आँत नहीं !" (पृ. ३१८) आध्यात्मिकता एवं सामाजिकता का पूरा समन्वय इसकी छटा को निरालापन प्रदान करता है । अध्यात्म व मोक्ष सम्बन्धी बातों में उनकी भाषा की चमक अनन्य है । उदाहरणार्थ :
0 "योग के काल में भोग का होना/रोग का कारण है और
भोग के काल में रोग का होना/शोक का कारण है।” (पृ. ४०७) "बन्धन-रूप तन/मन और वचन का
आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है।" (पृ. ४८६) कवित्व :
"प्रभाकर के कर-परस पाकर/अधरों पर मन्द-मुस्कान ले
सरवर में सरोजिनी खिलती हैं।" (पृ. २१५) परिश्रम की महत्ता पर उनके शब्द हैं
"परिश्रम करो/पसीना बहाओ/बाहुबल मिला है तुम्हें
करो पुरुषार्थ सही/पुरुष की पहचान करो सही।” (पृ. २११-२१२) अन्ततोगत्वा यह जाहिर है कि जो अपने अन्तस् को पहचानना चाहता है, साथ ही साथ समाज को भी पहचानना चाहता है उसके लिए यह महाकाव्य एक धरोहर है, मार्गदर्शक है । यह महाकाव्य आध्यात्मिकजनों के लिए ही नहीं, आधुनिक मानव के लिए भी उपयोगी है जिसमें आधुनिक जीवन का भी खूब यथार्थ चित्रण सन्दर्भानुकूल हो पाया है। 'मूकमाटी' महाकाव्य स्वर्ग-पृथ्वी को, भू-नभ को, देव-मानव को बाँधने वाला महा सेतु है।