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220 :: मूकमाटी-मीमांसा
दुर्बल जनों को पीटते रहते हैं। वे मूकमाटी की तरह सब स्वयं सह रहे हैं। ऐसी नीच स्थिति ने घोर व्याली-सी सबको रेंगते-रेंगते घेर लिया है। उसकी पकड़ से बचना मुश्किल है। यहाँ गणतन्त्र के बदले धनतन्त्र ही होता है । धन ही सब कुछ है । वही सब कुछ करता है । सामाजिक नीति उसके इशारे पर नाच रही है । मनमाना तन्त्र है यह। कितनी सशक्त सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति है। कवि का समाज के प्रति जो दायित्व है, उसका सही दृष्टान्त है यह । सामाजिक प्रतिबद्धता सन्त कवि तोड़ न पाए हैं।
यहाँ निरपराध कुम्भ, निरपराध मूक आम-असहाय आदमी है, जिससे चारों ओर लकड़ियाँ बिछाकर जला रहे हैं । यहाँ न्याय भी अन्याय-सा लगता है। न्याय का युग बीत गया । लकड़ी का यह कथन “निर्बल-जनों को सताने से नहीं, बल-संबल दे बचाने से ही बलवानों का बल सार्थक होता है" (पृ. २७२)- नए समाज के प्रत्येक अधिकारी लोगों को, समाज-सुधारकों को और प्रत्येक तबके के उन्नत लोगों को सन्त कवि का यही सन्देश है।
___ कुम्भ की अग्नि-परीक्षा होने वाली है। लेकिन अग्नि जलती नहीं। कुछ बाधा है। अग्नि-परीक्षा के बिना आज तक किसी को भी मुक्ति मिली नहीं। कुम्भ को नहीं जलाना है, उसके दोषों को जलाना है । अग्नि जलने लगी । कुम्भ के मुख में, उदर में, आँखों में, कानों में और नाक के छेदों में धूम ही धूम है । कुम्भ का कुम्भक प्राणायाम, उदर में धूम को पूर कर । यह अग्नि-परीक्षा है दमघोंटू वातावरण में घुट-घुट कर मरने वाले दुर्बल आदमी की । यहाँ दर्शन और अध्यात्म का प्रतिपादन भी हुआ है।
अग्नि-परीक्षा से छोटी-सी प्रतिज्ञा भी मेरु-सी लगेगी। आस्था अस्त-व्यस्त हो जाएगी। भावी जीवन के प्रति उत्सुकता नहीं रहेगी। कुम्भ की अग्नि-परीक्षा सम्पूर्ण हुई। जलने से कालिमा छाई । इस खण्ड में साधक के सच्चे भावों का, गुणों का वर्णन भी हुआ है।
अग्नि-परीक्षा के बाद भी परीक्षा ! तब कुम्भ का कहना-करो-करो परीक्षा, पर को परख रहे हो, अपने को तो परखो जरा'! परीक्षक बनने से पूर्व परीक्षा में पास होना अनिवार्य है, अन्यथा उपहास का पात्र बनेगा वह । कुम्भ को निमित्त बनाकर अग्नि की अग्नि-परीक्षा ले रहे हैं। उसके बीच सेवक का, साधुता का वर्णन भी किया है । इस खण्ड में अनेक सामाजिक बातों का ज़िक्र भी किया है। स्वर्ण-कलश के माध्यम से पूँजीवाद की ओर इशारा है। परतन्त्र जीवन की आधारशिला है वह । हाँ, हाँ ! मज़दूरों के शोषण से पूँजीपति और अधिक धनवान् होते हैं । मज़दूरों की ताकत पर आधारित उनका जीवन परतन्त्र जीवन है । सन्त जनों पर उनका आक्रोश, उनके द्वारा समता का उपहास आदि अक्षम्य अपराध है । पूँजीपतियों ने अपने दोषों को छिपाकर निर्दोषों को सदोष बताया है और बताएँगे भी।
"धनिक और निर्धन-/ये दोनों/वस्तु के सही-सही मूल्य को स्वप्न में भी नहीं आँक सकते/कारण/धन-हीन दीन-हीन होता है प्राय:
और/धनिक वह/विषयान्ध, मदाधीन !!" (पृ. ३०८) मच्छर का कथन देखिए--'अरे, धनिकों का धर्म दमदार होता है। उनकी कृपा कृपणता पर होती है, उनके मिलन से कुछ मिलता नहीं, काकतालीय-न्याय से कुछ मिल भी जाए वह मिलन लवण मिश्रित होता है, पल में प्यास दुगुनी हो उठती है।' मच्छर ने सेठ की निन्दा की है । मच्छर के माध्यम से कवि ने सामाजिक यथार्थ को ही उजागर किया। मत्कुण के माध्यम से दुर्भावना के साथ कुछ देने वाले कृपण धनवानों की खिल्ली उड़ायी है। छिद्र में मत्कुण रहता अवश्य है। लेकिन वह किसी के छिद्र देखता नहीं। पुरुष और प्रकृति के माध्यम से नर-नारी सम्बन्ध का वर्णन किया है। कुछ और सामाजिक बातों का उद्घाटन देखिए--'सकल कलाओं का प्रयोजन बना है केवल अर्थ का आकलन-संकलन