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216 :: मूकमाटी-मीमांसा है। अर्थात् किसी भी महान् आदर्श व्यक्ति की छाया मात्र पड़ने से नीचे रहनेवाली मछली रूपी आत्मा में ऊर्ध्व हो जाने की चेतना जाग्रत होती है। अन्ध कूप में पड़ी मछली रूपी आत्मा, विकृत गति, मति और स्थिति से बचना चाहती है। ज्ञानरूपी प्रकाश-किरण के लिए तरसती है। मछली को ऊपर उठाने के लिए कुम्भकार अपनी बालटी नीचे कूप में उतारता है । लेकिन सब मछलियाँ जाल को बन्धन समझकर, भीति से भाग जाती हैं। मगर एक मछली, जो दृढ़संकल्पिता है, वह महा आयतन की शरण में जाने की सोच लेती है, क्योंकि कूप में रहने से पता नहीं कब बड़ी मछली छोटी को निगल लेगी।
__ आधुनिक सन्दर्भ में रखकर इसकी विवेचना करने से प्रतीत होता है कि हमारे ही समाज में ऐसी अनेक मछलियाँ हैं, जो छोटी-छोटी मछलियों को खा जाती हैं। सहधर्मी होते हुए भी, सजाति में ही वैरभावना पनप रही है। श्वान, श्वान को देखकर नाखूनों से धरती को खोदता, गुर्राता है। यही हालत हमारे देश में दर्शनीय है। इससे मुक्ति तभी सम्भव है, जब उनकी चेतना ऊर्ध्वमुखी हो जाएगी।
सबका विश्वास अपने आप से भी उठ गया है। मुंह में राम बगल में छुरी' का हाल बनाया है हमने । दया का स्थान लुट गया । अस्त्रों, शस्त्रों, कृपाणों पर ही हमारा विश्वास रहा है । किन्तु यह जानना है कि कृपाण कभी कृपालु नहीं होता । कृपाण का अर्थ 'कृपा न' है। धर्म के पवित्र झण्डे को आज डण्डा बना दिया है। ईश्वर-स्तुति में तत्पर सुरीली बाँसुरी को भी बाँस बनाकर सुमार्ग-चलनेवालों को पीटते हैं। 'मूकमाटी' में आचार्यश्री ने ऐसे जो प्रतीकात्मक चित्र अंकित किए हैं, वे सब आधुनिक जमाने के यथार्थ चित्रण को प्रस्तुत करने वाले हैं।
___किसी मंगल कार्य के शुरू करते समय विघ्न-बाधा का उपस्थित होना सहज है। किन्तु उन व्यवधानों का सावधानी से सामना करना चाहिए। तभी हमें अन्तिम समाधान मिलेगा। उसी प्रकार गुणों के साथ दोषों का बोध रखना चाहिए, किन्तु दोषों के प्रति द्वेष रखा उचित नहीं है । वह तो अज्ञता है, बल्कि उनसे अपना बचाव करना विज्ञता है। यह विज्ञता विरलों में ही मिलती है। मछली जब अपने उद्धार के लिए चल निकली, तो अन्य मछलियों की भीति दूर हो गई और उनको दिशा मिल गई। मोक्ष की यात्रा का अनुमोदन सारी मछलियाँ कर रही हैं। मोह छोड़कर मुक्ति की ओर आत्मा की यात्रा । पतन-पाताल से, उत्थान-उत्ताल की ओर प्रयाण । अब मछली को तैरने की जरूरत नहीं । कूप का बन्धन टूट गया। मछली बालटी में से उछलकर माटी के पावन चरणों में जा गिरती है और उजली अश्रु की बूंदों से माटी के चरणों को धोती है।
इस सन्दर्भ में कवि की दृष्टि आधुनिक समाज की गतिविधियों की ओर भी पड़ती है । आधुनिक समाज से मानवता गायब हो चुकी है। उसकी जगह दानवता ने हड़प ली है। “वसुधैव कुटुम्बकम्' का अर्थ ही बदल गया है। उसका आधुनिकीकरण हुआ है। 'वसु' माने धन-द्रव्य और 'धा' यानी धारण करना । आज तो धन ही कुटुम्ब बन गया है और वही मुकुट भी। इस नग्न सत्य को कवि ने आध्यात्मिकता के कवच से उभारा है। माटी, 'धरती माँ से तो मछली 'माटी माँ' से अपना उद्धार चाहती है। उसके प्रश्न के उत्तर के रूप में कवि ने कलियुग की सही पहचान दी है। सत्युग एवं कलियुग का उन्होंने अन्तर समझाया है । सन्तों से उनको यह सूत्र मिला है :
" "उत्पाद-व्यय-धौव्य-युक्तं सत्"/सन्तों से यह सूत्र मिला है इसमें अनन्त की अस्तिमा/सिमट-सी गई है/यह वह दर्पण है, जिसमें/भूत, भावित और सम्भावित/सब कुछ झिलमिला रहा है, तैर रहा है/दिखता है आस्था की आँखों से देखने से !" (पृ. १८४)