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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 215 शिल्पी माटी को छालनी से छानता है । कूड़े-कंकड़ को निकालता है, उसे शुद्ध किया जा रहा है । मृदुता की चरम दशा प्राप्त होती है। निष्कासित कंकड़ पूछते हैं कि क्यों उन्हें निकाला जा रहा है, अपनी माँ माटी से ? तब शिल्पी का कथन है- उसका शिल्प मृदु माटी से, लघु जाति से निखरता है । कठोरता से शिल्प बिखरता है । कोमल मनवाले ही सुधर सकते हैं। उन पर प्रभाव जल्दी पड़ता है, उन्हें हम सुन्दर से सुन्दरतम बना सकते हैं। लेकिन कठोर दिलवालों को सुधारना आसान नहीं है। उससे निर्माण भी कठिन है । और भी एक बात यह है कि शिल्पी वर्ण-संकर-दोष से डरता है। यह वर्ण-संकर-दोष न रंग से है, न ही अंग से वरन् चाल-चरण, ढंग से है। जिसे अपनाया, उसे जिसने अपनाया है, उसके अनुरूप अपने गुण-धर्म, रूप-स्वरूप को परिवर्तित करना होगा। कवि वर्ण-लाभ को ठुकराता नहीं। क्षीर-नीर के उदाहरण से उसे भी मान्यता प्रदान करता है : "नीर का क्षीर बनना ही/वर्ण-लाभ है,/वरदान है ।/और क्षीर का फट जाना ही/वर्ण-संकर है/अभिशाप है।" (पृ. ४९) माटी से कंकड़ का अस्तित्व अलग है। वह कभी माटी में मिल नहीं पाएगा, क्योंकि उसका गुण-धर्म अलग है जिसे वह भूल नहीं पाता। चूर्ण होने पर भी रेतिल माटी बन नहीं सकता। यहाँ कंकर भी एक प्रतीक है । हृदय-शून्य व्यक्ति का प्रतीक पाषाण- हृदयवाला, दूसरों के दुःख-दर्द से जो पिघलता नहीं। शिल्पी फिर भी कंकर से घृणा नहीं करते, क्योंकि ऋषि-सन्तों का सदुपदेश है कि पापी से नहीं पाप से, पंकज से नहीं पंक से घृणा करनी है। यह धार्मिक उपदेश कितना स्वीकार्य वा वर्तमान युग में यह कितना प्रासंगिक 'पृथक्-वाद' का आविर्भाव होना मान का ही फलदान है। कितनी सच्ची अभिव्यक्ति है । वर्तमान समाज में जो कुछ अन्याय, अत्याचार चल रहे हैं, वह इस पृथक्-वाद का नतीज़ा नहीं है तो फिर क्या होगा ? ___ मानातीत मार्दव-मूर्ति माटी-माँ से कंकर-दल हीरा बनने का मन्त्र चाहता है, कंचन-सा खरा बनने का। उनके प्रति माटी माँ का कथन विचारणीय है : “राही बनना ही तो हीरा बनना है, स्वयं राही शब्द ही विलोम-रूप से कह रहा है- राहीही 'रा।" जो जीवन-यात्रा के बीच प्रकट आने वाली विघ्न-बाधाओं से भिड़कर लक्ष्य प्राप्ति की ओर जा रहा है, उसे अवश्य हीरा बनना है । तन-मन को कठोर बनाना होगा, क्योंकि उसे सब कुछ सहना पडेगा। जीवन का ध्येय जो भी हो तो भी संघर्षों से गजरना होगा। मगर संघर्षों से भिड़ने के लिए मन को कठोर बनाना होगा। नहीं तो लक्ष्य-प्राप्ति अधूरी रहेगी। यह प्रेरणा आधुनिक जन-जीवन के संघर्षों से गुज़रने वाले प्रत्येक आदमी को बेहद लाभदायक है । तन-मन को संघर्षों की आग में तपाकर राख बनाना है । राख यानी खरा यानी शुद्ध । ___ कुम्भकार, माटी से शिल्प बनाने का प्रयास कर रहा है । माटी को जल मिलाकर फुलाना है । कूप पर खड़े होकर कर में बालटी लेकर जल खींच रहा है। लेकिन रस्सी उलझ गयी। शिल्पी रस्सी की उलझन को सुलझाने का प्रयास कर रहा है । काम की शुरुआत में विघ्न-बाधाओं का आना सहज है । उसे सुलझाकर ही लक्ष्य-प्राप्ति की ओर प्रयाण करना है। शिल्पी का आयाम प्रारम्भ हुआ । संघर्ष- ‘बात का प्रभाव', 'हाथ का प्रभाव', 'हथियार का प्रयोग' यानी दाँत-रसना का उपयोग अन्त में गाँठ खोल देता है। रस्सी-रसना को प्रतीक बनाकर हिंसा-अहिंसा का विवेचन हुआ है । रस्सी की गाँठ नहीं खुलेगी तो उसकी वजह से अनेक जलचर जीव अकाल में ही मरेंगे । इसलिए गाँठ खोलना अनिवार्य है। काया माया है। शिल्पी की काया की छाया सुदूर कूप के स्वच्छ जल में स्वच्छन्द तैरती मछली पर जा पड़ती
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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