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214 :: मूकमाटी-मीमांसा
प्रकृति माँ के मन को दुखानेवाली बातों से हमेशा दूर रहने का उनका संकेत है ।
भारत की पुण्य-परम्परा में मार्गदर्शकों, आचार्यों, गुरुओं का कहीं अभाव नहीं । लेकिन उनके दिखाए पावन पथ पर चलने की कामना आज के लोगों में थोड़ी ही है । कथनी और करनी में सामंजस्य न रखने वाले आज के नेताओं की ओर इशारा करके कवि कहते हैं :
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'आज पथ दिखाने वालों को / पथ दिख नहीं रहा है, माँ ! कारण विदित ही है- / जिसे पथ दिखाया जा रहा है
वह स्वयं पथ पर चलना चाहता नहीं, /औरों को चलाना चाहता है और / इन चालाक, चालकों की संख्या अनगिन है।" (पृ. १५२)
दिन-ब-दिन बढ़ने वाले ऐसे झूठे नेताओं से घिरे रहकर हम आज तंग आ रहे हैं। ऐसी सच्चाई पर बिलखती कवि की लेखनी दरअसल अपना कवि - कर्म निभाती है ।
प्रथम खण्ड में माटी कुम्भकार की प्रतीक्षा में विह्वल है कि कब उनके चरण निकट आएँ कुम्भकार को कवि ने दृढ़संकल्पी मानव कहा है । वह अविकल्पी है। तनाव के भार - विकार से दूर है । वह कुशल शिल्पी है - पददलित माटी
नाना रूप प्रदान करने वाला महापुरुष । यहाँ कवि ने सरकार की ओर भी संकेत किया है। सरकार उससे कर नहीं माँगती, क्योंकि इस शिल्प के कारण चोरी के दोष से वह सदा मुक्त रहता है। अर्थ के व्यय - अपव्यय से भी यह शिल्प बहुत दूर है। शिल्पी को यह सार्थकता प्रदान करता है । कितनी सार्थक एवं यथार्थ अभिव्यक्ति है ।
शिल्पी ने कार्य की शुरुआत में ओंकार को नमन किया है । अहंकार का वमन किया । लक्ष्य प्राप्ति की ओर बढ़ने वालों को, सहायक बनने वालों को अपने अहम् को दूर करना चाहिए ताकि पूर्ण सफलता मिल जाए। कर्तृत्वबुद्ध और कर्तव्य-बुद्धि से जुड़ना है। कार्य की निष्पत्ति तक ये दोनों अनिवार्य होती हैं ।
कुम्भकार माटी को मार (खोद) रहा है। माटी क्रन्दन करती है । उसे बोरी में भरकर वह ले जा रहा है। तब 1 उसको सन्देह हो रहा है कि भोली माटी के सात्त्विक गालों पर घाव क्यों है ? छेद क्यों है ? वह उसका भेद जानना चाहता
तो माटी का कथन है कि वर्षाकाल में बूंदें टपक-टपक कर ही छेद पड़ते हैं। दीन-हीनों का रुदन है यह वर्षा । अश्रुधारा-प्रवाह से, प्यार और पीड़ा से घाव हुए हैं। तब शिल्पी सहज कह उठता है कि यही वास्तविक जीवन है।
यहाँ कवि ने वास्तविक जीवन क्या है, उसकी एक झलक दी है। शिल्पी का सहयोगी है 'गदहा', जो स्वच्छन्द और अवैतनिक है । उसका बन्धन सिर्फ़ स्वामी की आज्ञा से है। माटी की दृष्टि गदहे की पीठ पर पड़ती है। बोरी की रगड़ से छिल रही है पीठ । माटी बोरी में से क्षण-क्षण छनकर छिलन के छेदों में जा कर मृदुतम मरहम बनती जा रही है। माटी की करुणा लेपन कर रही है। बोरी की रूखी स्पर्शा भी घनी मृदुता में डूबी जाने पर भी माटी उदासीन है, क्योंकि गदहे छिलन में, जलन में निमित्त कारण वह है । इसका उसे दु:ख है, पश्चात्ताप है । इस सन्दर्भ में कवि ने दया की महिमा गाई है और विभिन्न रसों पर अपना मत प्रकट किया है।
माटी के निर्माण का समय आया है। योगशाला में शिल्पी से शिक्षण-प्रशिक्षण मिलता है, जिसका सीधा असर भीतरी जीवन पर पड़ता है। जीवन का निर्माण होने वाला है, साक्षी है इतिहास । अधोमुखी जीवन ऊर्ध्वमुखी होकर उन्नत होता है । बेसहारा जीवन सहारा देने वाला बनता है। दर्शनार्थी आदर्श पा जाते हैं । इतिहास से सम्बन्धित सदियों से उलझी समस्याएँ सहज सुलझ जाती हैं क्षण-भर की संगति से । यहाँ सब कुछ मिलते हैं, सब को । संस्कारार्थी को परामर्श तथा कृषि और ऋषि को निःस्वार्थी आर्ष पा जाते हैं। ऐसा विशुद्ध वातावरण है ।