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________________ कब तक... पता नहीं / इनका छोर है या नहीं !" (पृ. ४) इतने पर भी माटी अपने दु:ख को, घुटन को छिपाती है । क्यों ? क्योंकि दूसरे उसके दुःख से दुःखी न हों। माटी की निःस्वार्थ भावना हमारे दिल को द्रवित कर देती है। यहाँ पर माटी जैसे पददलितों की सीमाहीन पीड़ा को कवि ने उभारा है। धरती माँ से माटी सहारा माँगती है, कुछ उपाय चाहती है कि अपना उद्धार कर पाए। पथ और पाथेय की वह माँग करती है। धरती माँ ने बेटी माटी को बता दिया कि जो अपने आप को पतित मानता है, लघुतम समझता है, वह ईश्वर को पहचान सकता है | वैसे ही किसी कार्य को सम्पन्न करने, अनुकूलता की प्रतीक्षा करना सही पुरुषार्थ नहीं । आधुनिक मानव को विघ्नों से भिड़ते हुए आशा बनाए रखने की प्रेरणा यहाँ से मिलती है : " संघर्षमय जीवन का / उपसंहार नियमरूप से / हर्षमय होता है, धन्य !" (पृ. १४) मूकमाटी-मीमांसा :: 213 - धारा पंक्तियों में कवि की आशावादिता छलकती है और संघर्षमय जीवन बितानेवालों को अमृत - लेपन-सी शान्ति-ध बहा देते हैं । माटी को कल प्रभात से अपनी यात्रा का सूत्रपात करना है । पतित को पावन बनाने कुम्भकार आएगा। माँ ने उसे समझाया : “उसी के तत्त्वावधान में / तुम्हारा अग्रिम जीवन स्वर्णिम बन दमकेगा । " (पृ. १७) अगले प्रभात से माटी की महान यात्रा शुरू होगी- "पथ के अथ पर / पहला पद पड़ता है / इस पथिक का' (पृ. २१) । पद रखने से पहले पिछली रात को आशा, आकांक्षा एवं जिज्ञासा की वजह से माटी को नींद नहीं आती। माँ धरती उसे पाथेय के रूप में कई उपदेश देती है। धरती माँ के मार्मिक कथन में धार्मिक मन्थन की जो बातें हमें मिलती हैं, वे वर्तमान समाज की हालत पर दृष्टि डालने वाली हैं और उनमें एक श्रेष्ठ आचार्य की सामाजिक प्रतिबद्धता भी निहित है। धरती माँ जानती है कि 'सुत को प्रसूत कर विश्व के सम्मुख प्रस्तुत करने मात्र से माँ का सतीत्व सार्थक नहीं होता बल्कि उसे सन्तान की सुषुप्त शक्ति को सत्-संस्कारों से सचेत, सशक्त और साकार करना होता है' (पृ. १४८) । इस प्रसंग में आपस में लड़ते भिड़ते, मिटाने -मिटने को तुले हुए आज के मानव की ओर इशारा करके प्रकृति माता के रुदन की ओर आचार्यजी ने दृष्टि डाली है। उनका कथन है : " जीवन को मत रण बनाओ प्रकृति माँ का ऋण चुकाओ !" (पृ. १४९) इस सन्दर्भ में दोषैकदृक् लोगों पर विचार करते कवि का उपदेश है : " "अपना ही न अंकन हो / पर का भी मूल्यांकन हो, पर, इस बात पर भी ध्यान रहे / पर की कभी न वांछन हो पर पर कभी न लांछन हो !" (पृ. १४९ )
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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