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________________ आधुनिक सन्दर्भ में 'मूकमाटी' की विवेचना - डॉ. जी. शान्ता कुमारी घटनाओं की बहुतायत से भरी बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भारतभूमि ने यातनाओं को सहन किया परन्तु उत्तरार्द्ध तक हमारी मातृभूमि ने आजादी के मीठापन का पान करना शुरू किया था। कितने बड़े तूफानों का सामना किया था । बल्कि अचम्भे की बात है कि इस भूमि ने इस बीच अपनी सांस्कृतिक परम्परा को कहीं खोने न दिया। 'तमस् से ज्योतिस्' की ओर ले चलने वाली एक अदृश्य शक्ति इस परम्परा की एक कड़ी है। उसके हाथ से प्रतिभावान् तपस्वी कवि कभी बच न पाएँगे। यों ज्योतिष की खोज करने वाले एक दिल की अदम्य जिज्ञासा का प्रस्फुटन 'मूकमाटी' महाकाव्य के प्रणयन के पीछे परिलक्षित है। इस काव्य के प्रणेता आचार्य विद्यासागर के आध्यात्मिक जीवन की अजस्र धारा का निर्बाध-प्रवाह इस काव्य को हिन्दी साहित्य की अक्षय-निधि बना देता है । जो धरती उपनिषदों की जन्मदात्री है, वही ऐसी रचना को जन्म दे सकती है और ऐसी एक जनता के लिए ही यह काव्य पुलकोद्गमकारी हो सकता है, जिसके अबोध में आस्तिकता निद्रावस्था में पड़ी हो। गाँधी जी के तत्त्वचिन्तन की गहराई के साथ-साथ कार्ल मार्क्स के प्रत्ययशास्त्र की गम्भीरता का सामंजस्य लगभग पाँच सौ पृष्ठों में विरचित 'मूकमाटी' महाकाव्य में मिलता है। यद्यपि इन दोनों के रास्ते अलग हैं तो भी लक्ष्य सम्बन्धी उनकी वैचारिक सत्ता में एकात्मकता है । अत: इस काव्य के प्रणयन से आचार्य श्री विद्यासागर सन्त होकर भी इस सदी के नए मानव का प्रतिनिधि बन जाते हैं। प्राचीनता-अर्वाचीनता का, आध्यात्मिकता-आधिभौतिकता का, परम्परागत दार्शनिक चिन्तनों का एवं समयानुसार बदली सामाजिक मान्यताओं का सुन्दर समन्वय इस महाकाव्य में हमें प्राप्त होता है । महाकाव्य की परम्परागत सीमाओं को तोड़ कर तत्कालीन समस्याओं का उद्घाटन करने में यह काव्य सक्षम हुआ है। अत: 'मूकमाटी' महाकाव्य का आधुनिक महाकाव्यों के परिप्रेक्ष्य में आलोचना करना अत्यन्त समीचीन होगा। चार खण्डों में विभक्त इस महाकाव्य की कथावस्तु रोचक है जिसमें कोई भी पात्र नायक या नायिका का स्थान नहीं ग्रहण करता । सन्तकवि जिस समाज की कल्पना करते हैं, उस समाज में साम्यवाद का जो स्वरूप हो सकता है उसी को लेकर काव्य के पात्रों की सृष्टि भी हुई है। दूसरे महाकाव्यों की तरह इसकी भी शुरूआत मनोरम प्रकृतिवर्णन से होती है, जो सीधे कथावस्तु की ओर ले चलती है : "सरिता-तट की माटी/अपना हृदय खोलती है माँ धरती के सम्मुख !" (पृ. ४) संघर्षों से लड़कर अपना उद्धार चाहने वाले पतित एवं पद-दलित मानव का प्रतिनिधित्व करने वाली पात्र है 'माटी' । वह अपनी माँ धरती से कहती है : "स्वयं पतिता हूँ/और पातिता हूँ औरों से, ..' अधम पापियों से/पद-दलिता हूँ माँ !" (पृ. ४) औरों से कुचली जाने पर, जिस तीव्र वेदना का अनुभव होता है उसे शब्दों के माध्यम से कविवर उजागर कर देते हैं : “यातनायें पीड़ायें ये !/कितनी तरह की वेदनायें/कितनी और आगे
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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