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मूकमाटी-मीमांसा :: 209 पाठक थोड़ी देर अर्थ तलाशने में लीन हो जाता है फिर अगले ही दृष्टान्त के द्वारा उसे अर्थ मिल जाता है कि भले ही बादल विष बरसाते हैं लेकिन 'वसुधा' की गोद में उतरकर उनका रूप परिवर्तन अमृत में हो जाता है । धरती की कुछ विशेषता है भी इस प्रकार की कि वह अपनी भिन्न-भिन्न प्रकृति और वस्तु के संयोग की पृष्ठभूमि में कभी रन उगलती है तो कभी अद्भुत धातुएँ; कभी जड़ का निर्माण करती है तो कभी चेतन का और कभी बुद्धिप्राण जीव मानव का तो कभी कीड़े-मकोड़ों का । जल, पावक, गगन और समीर आदि पंचभौतिक विभूतियों के मेल से तरह-तरह की वस्तुओं को ढालने का स्वभाव और किसी को नहीं सिर्फ़ धरती को मिला । आचार्य विद्यासागर ने सामान्य बात के माध्यम से व्यापक अर्थ उतारने की कोशिश जगह-जगह की है।
“कुम्भ !/'कुं' यानी धरती/और/'भ' यानी भाग्य
यहाँ पर जो/भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो/कुम्भकार कहलाता है।” (पृ. २८) कुम्भ-निर्माता शिल्पी को भाग्य-विधाता ब्रह्मा के अर्थ में प्रस्तुत करने की परम्परा भले ही पुरानी पड़ गयी हो लेकिन यहाँ पर आचार्यश्री ने प्रचलित अर्थ को 'शब्द -मन्थन' की तुला पर रखकर उसकी व्यापक भावभूमि को आवरण मुक्त कर दिया, फलत: लौकिक अवधारणा को अलौकिकत्व प्राप्त हो गया।
दार्शनिक प्रतीकार्थ को स्पष्ट करने के लिए कवि ने जिन दृष्टान्तों का सहारा लिया है उनकी लोकात्मक प्रकृति अन्य प्रयोजनों से प्रयुक्त दृष्टान्तों से थोड़ी भिन्न है । इस तरह के दृष्टान्तों को कवि ने आत्म कथा' शैली में प्रस्तुत किया है जिससे उसकी आन्तरिक वेदना शब्द के सहारे दार्शनिक अर्थ को खोलने के साथ-साथ प्रभावशाली बना देती है। क्लिष्टार्थ का शोधन करके मृदु अर्थ में ढाल देती है :
“लो, जलती अग्नि कहने लगी कि/मैं इस बात को मानती हूँ कि अग्नि-परीक्षा के बिना आज तक/किसी को भी मुक्ति मिली नहीं, न ही भविष्य में मिलेगी/...कुम्भ कहता है अग्नि से/विनय-अनुनय के साथ मैं कहाँ कह रहा हूँ/कि मुझे जलाओ ?/हाँ, मेरे दोषों को जलाओ ! मेरे दोषों को जलाना ही मुझे जिलाना है स्व-पर दोषों को जलाना/परम-धर्म माना है सन्तों ने।/दोष अजीव हैं, नैमित्तिक हैं/बाहर से आगत हैं कथंचित्;/गुण जीवगत है, गुण का स्वागत है ।/तुम्हें परमार्थ मिलेगा इस कार्य से, इस जीवन को अर्थ मिलेगा तुम से/मुझ में जल-धारण करने की शक्ति है जो तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है,/उसकी पूरी अभिव्यक्ति में
तुम्हारा सहयोग अनिवार्य है।” (पृ. २७५-२७७) जैन-दर्शन में गुणों की व्याख्या मनोवैज्ञानिक आधार पर की गई है, फलत: जीवन में गुणग्रहण को सर्वोच्च लक्ष्य माना गया। सिद्धावस्था तक पहुँचने के लिए मुमुक्षु को गुणों को धारण करना ही पड़ता है । इस दृष्टि से ही चौदह गुणस्थानों की विकास यात्रा से सिद्धि को अन्तिम लक्ष्य माना गया है- मिथ्यात्व, मिथ्यात्व से मुक्ति किन्तु सम्यक्त्व से च्युति, मिथ्या एवं सम्यक् श्रद्धा की अवस्था, अविरत सम्यग्दृष्टि, पाँच पापों का आंशिक त्याग- जिसे देशविरति कहा गया, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय, उपशान्त मोह, क्षीण मोह, सयोगकेवली तथा