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210 :: मूकमाटी-मीमांसा अयोगकेवली । इन गुणस्थानों के लिए गुण को जीवगत घोषित करने के पीछे व्यंजना यही है कि कवि गुणों के माध्यम से सिद्धि पाने का प्रतीकात्मक लक्ष्य घोषित करता है । दोषों को जलाने में इन गुणों की अहं भूमिका 'स्व-पर' दोष परिमार्जन का प्रभावी कदम माना जा सकता है।
____ लौकिक उपमानों के द्वारा अलौकिक सन्दर्भो को रूपायित करने की आध्यात्मिक प्रक्रिया उन कबीर, रैदास आदि सन्त कवियों का स्मरण कराती है जिन्होंने दृष्टान्तों के द्वारा दुरूह ब्रह्म को समझाने का प्रयत्न किया। जब कबीर अद्वैत ब्रह्म को स्पष्ट करने के लिए कुम्भ का उदाहरण रखते हैं तब उनमें देही और देह के अन्योन्याश्रित सम्बन्धों का बोध जागृत रहता है । इस बोध को ही व्यक्त करने के लिए आचार्य विद्यासागर भी 'स्व' की उपलब्धि को महानतम उपलब्धि घोषित करते हैं :
"फिर, बायें हाथ में कुम्भ लेकर,/दायें हाथ की अनामिका से चारों ओर कुम्भ पर/मलयाचल के चारु चन्दन से स्वयं का प्रतीक, स्वस्तिक अंकित करता है
'स्व' की उपलब्धि हो सबको/इसी एक भावना से।” (पृ. ३०९) लौकिक उपमानों की आन्तरिक शक्ल की अनुकृति बिम्बात्मक दृश्यों की अद्भुत छटा से रूप में अंकित मिलती है । दर्शन की पृष्ठभूमि में ऐसे दृश्यों का उपयोग कवि ने केवल दृश्य-निर्माण के लिए नहीं किया है अपितु पारम्परिक अर्थ देने का प्रयास किया है। स्वस्तिक' भारतीय समाज का ऐसा चिह्न है जो लाभ एवं शुभ का सूचक माना जाता है । उसका शिवत्व सत्य और सुन्दर के संयोग से भास्वर होता रहा है। 'स्वस्तिक' की सम्पूर्ण व्याख्या निम्नांकित बिम्ब-योजना में देखी जा सकती है :
"प्रति स्वस्तिक की चारों पाँखुरियों में/कश्मीर-केसर मिश्रित चन्दन से चार-चार बिन्दियाँ लगा दीं/जो बता रहीं संसार को, कि संसार की चारों गतियाँ सुख से शून्य हैं। इसी भाँति, प्रत्येक स्व के मस्तक पर/चन्द्र-बिन्दु समेत, ओंकार लिखा गया योग एवं उपयोग की स्थिरता हेतु ।/योगियों का ध्यान
प्राय: इसी पर टिकता है।" (पृ. ३०९) ओंकार में योग और उपयोग के सामंजस्य को व्यक्त करने की इतनी सूक्ष्म व्यंजना किसी विस्तृत व्याख्या में भी सम्भव नहीं दिखती है । साधारण 'चोटी' को आधार बनाकर 'मुक्ति' दर्शन का विश्लेषण करना आचार्यप्रवर विद्यासागर जैसे सन्त कवि के द्वारा ही सम्भव है :
“प्रायः सब की चोटियाँ/अधोमुखी हुआ करती हैं, परन्तु/श्रीफल की ऊर्ध्वमुखी है ।/हो सकता है
इसीलिए श्रीफल के दान को/मुक्ति-फल-प्रद कहा हो।” (पृ. ३११) कवि श्री विद्यासागरजी ने बिम्बों का निर्माण लोक प्रचलित अन्धविश्वासों के माध्यम से भी किया है, लेकिन ऐसे वर्णनों में किसी जनमान्यता को प्रोत्साहित करने की जगह पर सुनी-सुनायी परम्परा को साक्ष्य के रूप में उपयोग