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मूकमाटी-मीमांसा :: 207
"पुरुष का प्रकृति पर नहीं/चेतन पर/चेतन का करण पर नहीं, अन्त:करण-मन पर/मन का तन पर नहीं/करण-गण पर/और
करण-गण का पर पर नहीं/तन पर/नियन्त्रण-शासन हो सदा।” (पृ. १२५) 'उत्पाद-व्यय प्रक्रिया की मौलिक उद्भावना को सत्य के समीकरण द्वारा चित्रित करने की क्षमता मुनि विद्यासागर में ही हो सकती है
“ 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्/सन्तों से यह सूत्र मिला है इसमें अन्नत की अस्तिमा/सिमट-सी गई है। आना यानी जनन-उत्पाद है/जाना यानी मरण-व्यय है लगा हुआ यानी स्थिर-ध्रौव्य है/और/है यानी चिर-सत्
यही सत्य है यही तथ्य"!" (पृ. १८४-१८५) 'मूकमाटी' के सौष्ठव विश्लेषण के आधार पर यह कहना अन्यथा न होगा कि जीवन-जगत् के प्रवाहपूर्ण अन्त:सामंजस्य को दार्शनिक पृष्ठभूमि में, महाकवि विद्यासागरजी ने काव्यमयी शैली में प्रस्तुत करके परम सत्य के अन्वेषण का मार्ग प्रशस्त किया है । सुधी पाठकों के लिए इस रचना का महत्त्व किसी 'विवेक-ज्योति' से कम नहीं है। 'मूकमाटी' के उद्देश्य, वर्णन प्रसंग, शब्द शिल्पांकन, रस-भाव प्रभाव, कल्पना दर्शन, रचना कौशल, भाषा विधान आदि कसौटियों पर कसने से सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि यह एक महाकाव्य कोटि का आधुनिक प्रकाश-स्तम्भ है।
'मूकमाटी' में लोक दर्शन - दृष्टान्त बोध रचना की कालजयता की बुनियाद शब्दशिला होती है । रूप, रस, गन्ध, ध्वनि जब आकाश पर अवलम्बित शब्द व्याख्या करने को उत्सुक हो जाते हैं तो रचनाकार की अनुभूति किसी सार्थक शब्द की तलाश करने लगती है, जीवनचर्या का मार्ग प्रशस्त करती है परम्परा, तो परम्परा का पथ प्रशस्त करती है युगीन अर्थवत्ता । शास्त्रों में जनकल्याण को ही धर्म का ध्येय बताया है। तभी तो अनादि काल से सबके सुख की कामना को परोपकार, परहित, मंगलकामना आदि रूपों में स्मरण करने की परम्परा शास्त्रोक्त परम्परा है । यहाँ का वैदिक ऋषि जब कहता है :
“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखमाप्नुयात् ॥” वो भारतीय परम्परा के विकसित उन गुणसूत्रों की ओर ही संकेत करता है जो काव्य की रससिक्ति शब्दावली में मिठास लाने में सहायक सिद्ध होती है । दृष्टान्त किसी रचना के अर्थ खोलने वाले औजार होते हैं, इसलिए कोई भी समर्थ कवि लोक-दृष्टान्तों के जरिए रचना के दर्शन को व्यक्त करना चाहता है । लोक-जीवन की संवेदनशील दृष्टि को भाषा के नवीन आयाम से जोड़ने की सार्थक पहल करना चाहता है । विद्यासागरजी ने 'मूकमाटी' काव्य कृति में लौकिक उदाहरणों के माध्यम से लोक-दर्शन के अनछुए पहलुओं को बहुत चतुराई से कह दिया है जिसके कारण ही इस कृति में दर्शन के गूढ़ पक्ष सहज ही उद्घाटित हो गए हैं। जरा-मरण के भय से मुक्ति दिलाने वाली यह अनूठी कृति उन्हें सरस कविता करने वाले कवीश्वर के रूप में स्थापित कर देती है :
"जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।