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________________ 206 :: मूकमाटी-मीमांसा गम-आह निकल सकती है।" (पृ. १२) - “कुशल लेखक को भी/जो नई निबवाली/लेखनी ले लिखता है लेखन के आदि में/खुरदरापन ही/अनुभूत होता है।" (पृ. २४) 'फुर्र-फुर्र' आदि समानान्तर प्रयोग के साथ 'आराधना' के जोड़ पर 'विराधना' का प्रयोग खटकता अवश्य है लेकिन कवि ने जिस अर्थ को सम्प्रेषित करने का प्रयास किया है उस अर्थ का सम्यक्बोध प्रयुक्त शब्द के द्वारा ही होना सम्भव था । सामान्य धर्म वाले सादृश्यमूलक उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि प्रचलित अलंकारों की भरमार तो मिलती ही है 'मूकमाटी' में पाश्चात्य अलंकारों का प्रयोग भी कम नहीं हुआ है । लांजाइनस को 'प्रश्नालंकार' बहुत प्रिय था। प्रश्नालंकार द्वारा काव्य-सौन्दर्य विवर्द्धन पर बल देने वाला वह पहला पाश्चात्य समीक्षक है। स्वयं के द्वारा प्रश्न किया जाना और स्वयं के द्वारा ही उसका उत्तर देना काव्य के चारुत्व को बढ़ाता है । डिमोस्थनीज ने अपने काव्य में इस अलंकार का सर्वाधिक प्रयोग किया था। आचार्य विद्यासागरजी ने इस अलंकार के द्वारा दार्शनिक गुत्थियों को सहज रूप में सुलझाने का अद्भुत प्रयास किया है : ० "प्रभु के अनुरूप ही/सूक्ष्म स्पर्श से रीता/रूप हुआ है किसका ?/.."धूप का ___मानना होगा/यह परिणाम-भाव/उपाश्रम की छाँव का है।" (पृ. ७९) ० "कहाँ हैं प्यास से पीड़ित-प्राण ?/वह शोक कहाँ/वह रुदन कहाँ वह रोग कहाँ/वह वदन कहाँ/और वह/आग का सदन कहाँ ?" (पृ. २९५-२९६) आदि न जाने कितने प्रयोग काव्य-शिल्प को नई गति और दिशा देने में सहायक सिद्ध हुए हैं। जैन-दर्शन के अधिकारी विद्वान् ही नहीं सिद्ध आचार्य विद्यासागर द्वारा प्रणीत यह कृति दार्शनिक उपपत्तियों का दस्तावेज बन गई है। संकर नहीं : वर्ण-लाभ', 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं,' 'पुण्य का पालन : पापप्रक्षालन' और 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' शीर्षक चार खण्डों में कवि ने जैन-दर्शन की मूलभूत चिन्तनधारा को मानव-हृदय से उद्भूत मानवता का कोष बना दिया है । मन की चंचलता की भाँति जल की चंचलता जब माटी का आश्रय पा जाती है तब उसमें ठहराव आ जाता है । जिस तरह विवेक का आश्रय पाकर मन ठहर जाता है उसी तरह माटी का आश्रय पाकर जल स्थिर हो उठा है : "जलतत्त्व का स्वभाव था-/वह बहाव इस समय अनुभव कर रहा है ठहराव ।” (पृ. ८९) यदि जल तत्त्व मिट्टी के सम्पर्क से ठहराव पा जाता है तो धूल जल के सम्पर्क से मृदु और लचीली मिट्टी का रूप ग्रहण कर लेती है। वर्षा ऋतु में धूल के विलुप्त होने से मिट्टी के सुन्दर रूप का चित्रण तुलसी ने भी किया है : "पंक न रेनु सोह अस धरनी। नीति निपुन नृप के जस करनी॥" दर्शन के गूढ़ परिणामों को उपदेश की भाषा में प्रस्तुत करने में समर्थ कवि ने काव्य को दर्शन का सहधर्मी बना दिया है:
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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