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मूकमाटी-मीमांसा :: 205
बेमानी दिखने लगती है।
'मूकमाटी' के भाव पक्ष और कला पक्ष का विश्लेषण करने पर यह कहना प्रासंगिक प्रतीत होता है कि इस कृति में रस और अलंकार की पूरक अनिवार्यता की कल्पना की गई है । रस के प्राचीन आधार आधुनिक काल में महत्त्वहीन साबित हो चुके हैं, तब भी मूकमाटी' में अंगीरस के रूप में शान्त रस का सन्निवेश मिलता है । रचनाकार ने इस रस की पुष्टि के लिए अंग रस रूप में कई स्थलों को भाव प्रधान बना दिया है फिर भी किसी रस का बहुत चटक या गाढ़ा प्रभाव नहीं परिलक्षित होने पाया है । रस का प्रभाव उत्तेजक होने से बचा लेने की क्षमता आचार्य विद्यासागर जैसे सिद्ध कवि में ही हो सकती है । ढोई जाती हुई माटी जब गधे की पीठ पर बोरी की रगड़ से बने घावों को देखती है तो द्रवित हो जाती है। उसे लगता है कि गधे को कष्ट देने वाली मैं हूँ। उसका करुण हृदय पश्चात्ताप की अग्नि में जलने लगता है। जिसका चित्रण कवि ने इस खूबी से किया है कि पाठक करुण रस की शान्त अनुभूति करने लगता है :
"और/उसे देखकर/वहीं पली/पड़ी-पड़ी/भीतरी अनुकम्पा को चैन कहाँ ? सहा नहीं गया उससे/रहा नहीं गया उससे/और वह/रोती-बिलखती दृग-बिन्दुओं के मिष/स्वेद कणों के बहाने/बाहर आ/पूरी बोरी को
भिगोती-सी अनुकम्पा!" (पृ. ३६-३७) __ अदृश्य चेतना विलक्षण रस माधुरी के रूप में किसी कवि सन्त के हृदय से पवित्र वाणी की शृंगार-साधना बनकर प्रवाहित हो उठती है । रस का यह स्वाभाविक उफान कविता और उपदेश दोनों में प्रकट होता है। मूकमाटी' की रसात्मक सम्पन्नता सायास एकत्र की गई नहीं लगती है अपितु अनायास फूटे हुए किसी झरने की तरह प्रस्फुटित-सी प्रतीत होती है। चित्रात्मकता 'मूकमाटी' की रसात्मकता की सहचरी है, इसलिए जगह-जगह इस कृति में रसानुभूति की तरह चित्रानुभूति भी होती है : .
"काक-कोकिल-कपोतों में/चील-चिड़िया-चातक-चित में बाघ-भेड़-बाज-बकों में/सारंग-कुरंग-सिंह-अंग में खग-खरगोशों-खरों-खलों में/ललित-ललाम-लजील लताओं में पर्वत-परमोन्नत शिखरों में/प्रौढ़ पादपों औ' पौधों में पल्लव-पातों फल-फूलों में/विरह-वेदना का उन्मेष
देखा नहीं जाता निमेष भी।” (पृ. २४०) अनुप्रास शब्दावली से कवि ने चित्रानुभूति का संयोजन किया है, जिससे सह-अनुभूति समानान्तर धरातल पर होती चलती है। भारतीय काव्यशास्त्र में रसानुभूति' की जिस गहराई का विश्लेषण किया गया है उसी गहराई तक पहुँचने के लिए पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्रियों ने सह-अनुभूति और 'समानुभूति' शब्दों का विश्लेषण किया। 'सिम्पैथी' और 'इम्पैथी' के सौन्दर्यात्मक पहलू की विश्लेषण पद्धति भारत में 'नयी कविता' की अनिवार्य माँग बनकर प्रकाश में आई। छायावादी कवि सुमित्रानन्दन पन्त की कविताओं में चित्रानुभूति का दर्शन 'समानुभूति' के स्तर पर ही होता है।
शब्द विधान की दृष्टि से 'मूकमाटी' की शैली तत्सम प्रधान है। कवि की भाषागत उदारता ने विषय को सहज बोधगम्य बना दिया है । रचनाकार ने यथास्थान विदेशी शब्दों के प्रयोग में भी हिचक नहीं दिखाई है :
0 “गुम-राह हो सकता है/उसके मुख से फिर