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204 :: मूकमाटी-मीमांसा
काव्य के नायक तो यही गुरु हैं किन्तु स्वयं गुरु के लिए अन्तिम नायक हैं अर्हन्त देव।"
अनेकान्तवादी दृष्टि से नायक-नायिका के सम्बन्ध में विद्वान् समीक्षक लक्ष्मीचन्द्र जैन के विचार आदरणीय हैं तथापि हमारा विनम्र निवेदन है कि 'माटी' को नायिका मान लेने पर गुरु को नायक मानना असंगत प्रतीत होने लगता है। अलौकिक सन्दर्भ के परिप्रेक्ष्य में देखने पर मूर्त कुम्भकार जब अमूर्त चेतना को घट में विद्यमान करता है तब घट का पारमार्थिक रूप नज़र आने लगता है । निमित्त कारण की अमूर्तता द्वारा संचालित उपादान कारण की उद्भावना का सम्बन्ध ही अनेकान्तवादी दर्शन की मंगल परिणति हो जाती है। नानात्मक सत्ता की तात्त्विक विवेचना ही तो अनेकान्तवाद की आवश्यकता है । आचार्य गुणरत्न ने एक श्लोक के द्वारा इस मत की व्याख्या की है :
"एको भावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः । सर्वे भावा: सर्वथा येन दृष्टाः, एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः॥"
___ (षड्दर्शनसमुच्चय टीका) व्यवहार और परमार्थ के समन्वय की अवधारणा द्वारा पदार्थों के नाना रूपों का समीकरण ही तो विश्व में अनुस्यूत परमतत्त्व तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करता है और उसी मार्ग को काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत करना ही तो आचार्य विद्यासागर का मंगल ध्येय है । फिर यदि काव्य में नायक पक्ष विवादास्पद भी रहता है तो काव्य के महाकाव्यत्व पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगता है, क्योंकि 'कामायनी', 'साकेत' जैसे नायिका प्रधान काव्यों की परम्परा आधुनिक काल की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी गई है। धरती (माँ)-माटी (बेटी) का वार्तालाप काव्य को नायिका प्रधान बनाए रखने में मदद करता है। 'नायक-नायिका' पर पति-पत्नी' भाव आरोपित करने से कुम्भकार और माटी को नायकनायिका मानना अवश्य दोषपूर्ण है लेकिन शास्त्रों में परम सत्ता के पुरुष-स्त्री दोनों रूपों का गुणगान मिलता है, तब किसी अलौकिक गुणों की खान मान लिया है जो लौकिक सन्दर्भो को भी अलौकिक बना देने में समर्थ है । प्रकृति-पुरुष का अन्त:सामंजस्य ही 'मूकमाटी' का उपादेय पहलू है । कवि का प्रतिपाद्य भी तो यही है :
0 “पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है।" (पृ. ९३) 0 “धरा की दृष्टि माटी में/माटी की दृष्टि धरा में
बहुत दूर भीतर"/जा "जा- समाती है।" (पृ. ५-६) कवि ने जिस तादात्म्य दर्शन का बोध किया है उसी की प्रतीति एक में अनेक और अनेक में एक दृष्टि का भाव है। धरती का अपनी बेटी माटी को समझाते हुए कहना :
"सत्ता शाश्वत होती है, बेटा!/प्रति-सत्ता में होती हैं अनगिन सम्भावनायें/उत्थान-पतन की/खसखस के दाने-सा बहुत छोटा होता है/बड़ का बीज वह !... ...अंकुरित हो, कुछ ही दिनों में/विशाल काय धारण कर वट के रूप में अवतार लेता है,/यही इसकी महत्ता है।
सत्ता शाश्वत होती है/सत्ता भास्वत होती है बेटा!" (पृ. ७) 'बेटी' सम्बोधन की जगह पर 'बेटा' सम्बोधन परम सत्ता में स्त्री (प्रकृति), पुरुष (परमसत्ता) भाव की सम्पृक्त पहचान कराने में समर्थ है, इसलिए भी नायक-नायिका के अन्वेषण की पहल 'मूकमाटी ' के सन्दर्भ में