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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 203 के दर्शन होते हैं इस कृति में । 'प्रतिभा नवनवोन्मेषशालिनी' की गुणवत्ता का प्रभाव इस कृति में दृष्टिगोचर होता है। विद्यासागर जी की संवाद-योजना रचना की रसात्मक भावधारा को गत्यात्मक प्रवाह देती है । शैली, वर्णन, प्रसंग, भाषा रसोत्कर्ष के माध्यम बन गए हैं। इसलिए रचना में सर्वथा नवीन और साधारण विषय को कथ्य बनाने के बावजूद कथानक की मिठास रसास्वादक को बाँधे रहती है। यही नहीं, काव्य के द्वितीय खण्ड में नौ रसों की मौलिक व्याख्या इस बात को सिद्ध करने में काफी दिखती है कि रसों की परिभाषाएँ धीरे-धीरे बदल रही हैं। कभी जहाँ किसी रस या भाव का नाम लेना 'स्वशब्दवाच्यत्वं दोषः' हो जाता था, वहीं आज रसोपचयन में सहायक हो गया है। सच है सन्त के स्पर्श से लौकिक मानदण्ड भी अलौकिक अर्थ पा लेते हैं। रस भाव और बुद्धि-विचार का सामंजस्य दिखाने की दृष्टि से एकदो उदाहरण पर्याप्त होंगे : "मानता हूँ इस कलिका में/सम्भावनायें अगणित हैं/किन्तु, यह कलिका कली के रूप में कब तक रहेगी ?/इस की भीतरी सन्धि से सुगन्धि कब फूटेगी वह ?/उस घट के दर्शन में/बाधक है यह घूघट अब राग नहीं/"पराग मिले!" (पृ. १४०-१४१) शृंगार की इस बिम्बात्मक परिधि में कल्पना का निष्कर्ष विराग उसी तरह है जिस तरह आध्यात्मिक चिन्तन का निष्कर्ष आत्मिक उत्कर्ष होता है। 'राग' के समानान्तर 'पराग' की सूक्ष्म अनुभूति की कल्पना न केवल मुग्धकारी है अपितु अर्थभरी भी है। 'वीर रस' के सन्दर्भ से इसका विश्लेषण और सार्थक हो जाएगा : “वीर रस का अपना इतिहास है/वीरों को उसका अहसास है उसके उपहास का साहस मत करो तुम !/जो वीर नहीं हैं, अवीर हैं उन पर क्या, उनकी तस्वीर पर भी/अबीर छिटकाया नहीं जाता!" (पृ. १३२) 'उसके उपहास का साहस मत करो तुम' पंक्ति में कवि की ललकार वीरोक्ति ललकार में बदल जाती है जबकि निष्कर्ष पंक्ति तक पहुँचते-पहुँचते वह उसकी महत्ता के चिन्तन में लीन हो जाता है। __ कथावस्तु की दृष्टि से भी 'मूकमाटी' को महाकाव्य की श्रेणी में रखना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि कथा सन्दर्भो को जिन मूल्यों के द्वारा उद्घाटित किया जाता है वे सभी मूल्य 'मूकमाटी' में यथास्थान विद्यमान हैं । कथा का चार खण्डों में विभक्त होना. एक प्रधान कथा का आद्योपान्त बने रहना, नव रसों का सन्निवेश, अलंकत शब्दावली से उसकी प्राणवत्ता को बनाए रखना, कथातत्त्व की आदर्श छटा आदि अनगिनत गुण 'मूकमाटी' की कहानी को आदर्श कहानी में परिणत कर देते हैं। नायक-नायिका की प्रासंगिकता पर विचार करते हुए कृति के प्रस्तवन' में श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के विचार का उल्लेख करना सटीक होगा : "."माटी तो नायिका है ही, कुम्भकार को नायक मान सकते हैं किन्तु यह दृष्टि लौकिक अर्थ में घटित नहीं होती। यहाँ रोमांस यदि है तो आध्यात्मिक प्रकार का है। कितनी प्रतीक्षा रही है माटी को कुम्भकार की, युगों-युगों से, कि वह उद्धार करके अव्यक्त सत्ता में से घट की मंगल-मूर्ति उद्घाटित करेगा। मंगल-घट की सार्थकता गुरु के पाद-प्रक्षालन में है जो काव्य के पात्र, भक्त सेठ, की श्रद्धा के आधार "शरण, चरण हैं आपके,/तारण-तरण जहाज, भव-दधि तट तक ले चलो/करुणाकर गुरुराज !"
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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