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________________ 202 :: मूकमाटी-मीमांसा महाकाव्य कहना सर्वथा उचित है । इस सबके बावजूद डॉ. भगीरथ मिश्र जैसे आधुनिक आचार्यों ने महाकाव्य के जिन लक्षणों का निर्धारण किया है, उसमें से कतिपय लक्षणों का उल्लेख करना यहाँ प्रासंगिक होगा : १. महाकाव्य सर्ग, अध्याय एवं खण्डों में विभक्त रचना होती है। २. उसका कथानक इतिहास, पुराण और कल्पना पर आधारित होता है । ३. प्रकृति, पर्वत, उत्सव आदि का वर्णन होता है। ४. उक्ति वैचित्र्य की प्रधानता होने के बावजूद उसमें प्राण रूप में रस व्याप्त होता है। ५. महाकाव्य का नाम, कथा, नायक या कथातत्त्व के आधार पर होता है । इन समस्त निकषों की दृष्टि से मूल्यांकन करने पर 'मूकमाटी' न केवल परिमाण की कसौटी पर महाकाव्य सिद्ध होता है अपितु कथ्य-तथ्य की कसौटी पर भी महाकाव्य सिद्ध होता है । 'मूकमाटी' काव्य काण्ड, अध्याय, सर्ग रूप में विभक्त न होकर खण्ड रूप में विभक्त है। इसमें कुल चार खण्ड हैं जो मुख्य कथा के चार तत्त्वों के रूप में कथात्मक अन्विति बनाए रखते हैं। सर्ग संख्या बढ़ाने की जगह पर रचनाकार ने खण्डों की सार्थक आवश्यकता पर बल दिया है । 'मूकमाटी' का कथानक यद्यपि कल्पना पर आधारित है तथापि उसमें वर्णित विषय वस्तु किसी भी राष्ट्र के नागरिक के लिए आकर्षक और लोकवृत्ति का स्पर्श करने वाला है। 'माटी' या 'धरती' के सम्मान में वीर और सन्त दोनों प्राणोत्सर्ग के लिए समान भाव से उद्यत मिलते हैं। एक बलिदान द्वारा उसकी लाज रखता है तो दूसरा समाधि द्वारा । 'माटी' प्रतीक रूप भी साधु, महात्माओं के उपमान दर्शन की अर्थवत्ता प्राप्त कर चुकी है। देश की माटी, जन्मभूमि की माटी चरण धूलि आदि रूपों में इसके महत्त्व की चर्चा लौकिक-अलौकिक दोनों सन्दर्भो में होती रहती है। भारतवासियों ने इसे पूज्य भाव से देखा-समझा है । फिर कल्पना की सार्थक अभिव्यक्ति भले ही इतिहास, पुराण में वर्णित माटी की महिमा के रूप में तो हुई है। यही कारण है कि काव्य की नायिका मूकमाटी कल्पित होकर भी नायिका की अवधारणा को पूर्ण करती है । कथातत्त्व के आधार पर ही इसका नामकरण किया गया है। इस दृष्टि से भी इसे महाकाव्य कहना तर्कसंगत प्रतीत होता है। 'मूकमाटी' के वर्णन प्रसंग अनूठे और अलौकिक हैं। प्रकृति की गोद में माटी का उद्भव कितना अनूठा लगने लगता है । वर्णन की नैसर्गिक चेष्टा माटी को प्रकृति की सहचरी साबित कर देती है। प्रारम्भ का यह दृश्य देखिए : “सीमातीत शून्य में/नीलिमा बिछाई, और 'इधर "नीचे / निरी नीरवता छाई,... प्राची के अधरों पर/मन्द मधुरिम मुस्कान है/सर पर पल्ला नहीं है और/सिन्दूरी धूल उड़ती-सी/रंगीन-राग की आभा/भाई है, भाई ! लज्जा के चूंघट में/डूबती-सी कुमुदिनी/प्रभाकर के कर-छुवन से बचना चाहती है वह/अपनी पराग को-/सराग-मुद्रा को पाँखुरियों की ओट देती है।" (पृ.१-२) प्रकृति का यह दृश्य मात्र काल्पनिक नहीं अपितु सत्य का अन्तर्बोध ध्वनित करने में भी समर्थ है। 'मूकमाटी' में शब्द चयन के बल पर जिन नवीन परिकल्पनाओं को सँजोया गया है उसे देखने से यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उक्ति-वैचित्र्य से कहीं अधिक इस कालजयी कृति में रस छटा की प्रबलता है । अलंकार विधान 'मूकमाटी' के वर्णनों का साधन मात्र है, साध्य तो है रस । इस परम्परागत स्वरूप के अलावा आनन्द-दीप्ति उत्कर्षात्मक प्रभा रूपों
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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