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200 :: मूकमाटी-मीमांसा
अग्नि द्वारा मूक होते हुए भी मानव-समाज को यह चेतना दी गई कि मानव साधुवृत्ति को धारण कर ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा राग, द्वेष, मोह आदि कर्म-ईंधन को यदि भस्म कर देवे, तो वीतराग परमात्मा हो सकता है। आप पुरुषार्थ करें और आत्मा को उज्ज्वल बनाएँ।
'मूकमाटी' का उपलक्षण एक वायु द्रव्य भी है जो लोक में अपना अस्तित्व सुरक्षित किए हुए है । वह वायु वातवलय की पर्याय से सर्व लोक का प्रबल आधार बनी हुई है । मूक वायु श्वास एवं उच्छ्वास के माध्यम से विश्वप्राणियों का अनिवार्य प्राण है । उसने व्योमयान, वायुयान एवं विमान, मेघमाला और पक्षियों को गगन में आश्रय प्रदान किया है एवं जिसके द्वारा महीतल का कूड़ा-कचरा आदि उड़ाकर पृथ्वी स्वच्छ कर दी गई है।
उस मूक पवन ने मानव को सन्देश दिया कि मानव रसलय रूप पवन के द्वारा ज्ञान, दर्शन, शक्ति स्वरूप भावप्राणों की सुरक्षा करे । शान्ति, सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य रूप प्राणवायु के द्वारा आध्यात्मिक जीवन को समृद्ध बनाए तथा अहिंसा रूप तीन वातवलयों के द्वारा लोक का आधार बने । धार्मिक वातावरण से छल, कपट, तृष्णा, पारस्परिक द्रोह, व्यसन और अन्याय के कचरे को शीघ्र उड़ा दें और हृदय-पटल को स्वच्छ कर दें।
'मूकमाटी' का एक अन्य उपलक्षण मूक वनस्पति का भी प्रभाव एवं परस्पर उपगृह (उपकार) प्रकृति लोक में प्रशंसा के योग्य है । उन चौबीस वृक्षों का महान् सौभाग्य था कि जिनकी शीतल छाया में श्री ऋषभनाथ आदि चतुर्विंशति तीर्थंकरों ने दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण की थी। वे वृक्ष अभी भी मानव-समाज का आह्वान करते हैं कि आप भी हमारी शीतल छाया में बैठकर जिन-दीक्षा को अंगीकार करें और आत्म-कल्याण में लीन हों। एक वृक्ष जिनेन्द्र तीर्थंकर के सन्निधान में आकर शोकरहित हो गया, अतएव उसका नाम 'अशोक' जगत् में प्रसिद्ध हो गया। विश्व के पादपों ने मिलकर अपना पंचांग (जड़, छाल,पत्ते,फल और फूल) मानवों के हितार्थ प्रदान कर दिए हैं। यह तरु समाज ने मानव समाज पर महान् उपकार किया है। वृक्ष स्वयं आतप की पीड़ा को सहते हुए अन्य प्राणियों को शीतल छाया प्रदान करते हैं। उनके इन उपकारों से मानव को भी यह शिक्षा प्राप्त होती है कि मानव को भी तन, मन, धन से स्व-पर-कल्याण करने में सदैव तत्पर रहना चाहिए।
_ 'मूकमाटी' एक साहित्यिक महाकाव्य है । माटी एक मूक पदार्थ है । उसकी प्रथम पतित अवस्था से लेकर अन्तिम उच्च पवित्र अवस्था तक का वर्णन करने से अन्य अनेक पार्थिव धातुओं की भी यह अव्यक्त दशा परिवर्तित होते हुए चरम अभिव्यक्त दशा होती है। इस रूपक से मानव की भी यह दशा अभिव्यक्त होती है । अन्तर इतना ज्ञात होता है कि माटी मूक होते हुए भी अपना उत्थान कर सकती है और मानव सत्यवादी होते हुए भी अपना लक्ष्य सम्पूर्ण नहीं कर सकता। यह चिन्ता का विषय है। पर्याय तो सभी पदार्थों की परिवर्तित होती है पर उनमें अन्तिम श्रेष्ठ दशा की जब अभिव्यक्ति होती है, वही प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है।
इस काव्य का 'मूकमाटी' यह नामकरण भी एक विशेष लक्ष्य को ध्वनित करता है । मूकमाटी यह उपलक्षण है जिससे अन्य पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति पदार्थों के अव्यक्त रूपों की अभिव्यक्ति सिद्ध होती है । महाकाव्य का अन्तिम निष्कर्ष यह है :
“इसीलिए इन/शब्दों पर विश्वास लाओ,/हाँ, हाँ !! विश्वास को अनुभूति मिलेगी/अवश्य मिलेगी/मगर/मार्ग में नहीं, मंज़िल पर !
और/महा-मौन में/डूबते हुए सन्त"/और माहौल को अनिमेष निहारती-सी/"मूक माटी।" (पृ. ४८८)