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________________ 'मूकमाटी' : एक सांस्कृतिक महाकाव्य डॉ. (पं.) दयाचन्द्र जैन साहित्याचार्य सन्तशिरोमणि आचार्य विद्यासागर महाराज इसके रचयिता हैं। मूकत्व भाव से सृजन करने के कारण 'मूकमाटी' यह साहित्यिक ग्रन्थ पृथक्-पृथक् चार खण्डों की अपेक्षा मानों चार खण्ड-काव्य हैं और समेकित खण्डों की अपेक्षा एवं चरम लक्ष्य की अपेक्षा एक महाकाव्य है। कारण, इसका लक्ष्य भावात्मक और शब्दात्मक कलेवर लगभग पाँच सौ पृष्ठों सम्पूर्णता को प्राप्त होता है। इस महाकाव्य का लक्ष्य द्योतित होता है। : " पथ पर चलता है / सत्पथ-पथिक वह / मुड़कर नहीं देखता तन से भी, मनसे भी // और, संकोच - शीला / लाजवती लावण्यवती सरिता - तट की माटी / अपना हृदय खोलती है/ माँ धरती के सम्मुख !" (पृ. ३-४) 'मूकमाटी' एक रूपक है जो अनेक द्रव्यों को, उसके अनेक रूपों को अभिव्यक्त करता है । विश्व के सूक्ष्म और स्थूल एवं दृश्य और अदृश्य सभी पदार्थ सत्ता के अन्तर्गत हैं । सत्ता समस्त पदार्थों का मौलिक तत्त्व है, जो सर्व व्यापक और नित्य होती है। किसी भी विद्यमान पदार्थ का नाश नहीं होता, अन्यथा समस्त पदार्थों का लोप हो जाएगा तथा किसी भी अविद्यमान पदार्थ का उत्पाद नहीं होता, अन्यथा आकाश - पुष्प, बन्ध्या-पुत्र, खरविषाण आदि का सद्भाव हो जाएगा । भूमि माता की गोद में फूली - फली माटी का नाश नहीं हुआ किन्तु उसने अनुकूल निमित्त कारणों का संयोग प्राप्त कर अपना विकास करते हुए मंगल कलश रूप सौन्दर्य पद को प्राप्त कर लिया । मंगल कलश को विश्व में आदर के साथ शुभ माना जाता है। इसीलिए सभी धार्मिक एवं लौकिक कार्यों में उसकी स्थापना की जाती है। 'मूकमाटी' महाकाव्य से एक दार्शनिक सिद्धान्त भी द्योतित होता है : "सद् द्रव्यलक्षणम्; उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" - (तत्त्वार्थसूत्र ५/२९-३०) । प्रत्येक द्रव्य में पूर्व पर्याय का नाश (अस्त) और उत्तर पर्याय का उत्पाद (उदय) होने पर भी द्रव्य की सत्ता विद्यमान (नित्यता) रहती है अर्थात् द्रव्य का मूलत: विनाश नहीं होता है । वसुधा में उत्पन्न मूकमाटी को कुम्भकार ने भूमि से निकाल कर शुद्ध किया । कुम्भकार उसको घट- निर्माण योग्य शुद्ध, मृदु बनाता है । तत्पश्चात् मृदु पिण्ड को चाक पर रखकर स्थास, कोश, कुशूल आदि पर्यायों में परिवर्तित करता है । घट को सुखाना, अवा में पकाना, विविध रंगों से चित्रित करना, मूल्य से विक्रय करना तथा अनेक मंगल कार्यों में मंगल घटका स्थापित किया जाना, मंगल कलश में फल, हल्दी, चाँदी, पुष्प का प्रक्षेपण, घट के मुख पर श्रीफल का स्थापित करना आदि सामग्रियों से मंगल कलश का सुसज्जित किया जाना -- ये सब पर्याय उत्पाद-व्यय के रूप में होती हैं तथापि मूक मृत्तिका अपनी सत्ता का परित्याग नहीं करती । मूक मृत्तिका ने अपने परिवर्तित पवित्र जीवन से मानव मात्र को यह सत्प्रेरणा प्रदान की है : " परोपकाराय फलन्ति वृक्षा:, परोपकाराय वहन्ति नद्यः । परोपकाराय दुहन्ति गावः, परोपकारार्थमिदं शरीरम् ॥” मूक वृक्ष परोपकार के लिए फल प्रदान करते हैं । मूक तरंगिणी ठण्डा जल प्रदान कर परोपकार करती है। मूक गोप्राणी समाज हित के लिए पौष्टिक दुग्ध प्रदान करती है। ये मूक प्राणी और मूकमाटी मानव समाज को शिक्षा प्रदान करती है कि 'हे मानव ! सावधान हो जाओ। आपका यह क्षणिक शरीर स्व पर कल्याण के लिए ही है। इससे व्यर्थ यापन मत करो ।'
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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