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मूकमाटी-मीमांसा :: 197
पुण्यार्जन को सम्भव बताया गया है। क्रोध, मान, माया और लोभ से पाप का उदय होना बताया गया है। इसी खण्ड में माटी की विकास गाथा के द्वारा पुण्य कर्मों से उत्पन्न श्रेयस्कर उपलब्धि का वर्णन किया गया है। चतुर्थ खण्ड में कुम्भकार ने घट को आकार दे दिया है । ‘अवा' में उसे तपाने की क्रिया भी वर्णित है । पके हुए कुम्भ को सोल्लास निकालकर कुम्भकार ने उसे सेठ के सेवक को दे दिया है ताकि आहार दान के लिए आए गुरु का पद-प्रक्षालन इसी कुम्भ के जल द्वारा हो । कुम्भ के होने की सार्थकता इसी में है। चतुर्थ खण्ड का फलक इतना व्यापक है, कथा प्रसंग इतने अधिक हैं कि सब का सार संक्षेप प्रस्तुत करना कठिन है।
ऊपर के संक्षिप्त विवरण से स्पष्ट है कि 'मूकमाटी' की रचना के पीछे एक व्यापक जीवन दर्शन और मंगलमय स्वप्न की प्रेरणा छिपी हुई है और इसकी व्यंजना 'माटी' की विकास-कथा के द्वारा की गई है। सम्पूर्ण काव्य का स्वरूप रूपकात्मक हो गया है । इसके पात्र और उनसे जुड़ी घटनाओं का प्रतीकार्थ संकेतित होता जाता है और इस तरह इस काव्य का स्वरूप 'कामायनी' की तरह ही, बहुत अंशों में, रूपक काव्य जैसा हो गया है।
'मूकमाटी' का कवि जहाँ ध्यान और चिन्तन की आध्यात्मिक ऊँचाई से उतरकर काव्य-कला की श्रीशोभा से युक्त धरती पर विचरता है वहाँ उसके शुद्ध कवि रूप की मोहक झलक मिलती है । उषा काल की प्रकृति का कितना मोहक और सुन्दर चित्रण इन पंक्तियों में हुआ है :
“भानु की निद्रा टूट तो गई है/परन्तु अभी वह/लेटा है/माँ की मार्दव-गोद में,
मुख पर अंचल ले कर/करवटें ले रहा है।" (पृ. १) भानु के बाल रूप और उसकी बाल चेष्टा का ऐसा वर्णन और कहीं देखने को नहीं मिलेगा। उषा की सिन्दूरी आभा में नहाए प्राची का कलात्मक और ललित वर्णन देखिए :
"प्राची के अधरों पर/मन्द मधुरिम मुस्कान है/सर पर पल्ला नहीं है/और
सिंदूरी धूल उड़ती-सी/रंगीन-राग की आभा-/भाई है, भाई!" (पृ. १) भाषा शैली और शब्द प्रयोग की दृष्टि से 'मूकमाटी' में भाषा की प्राणवत्ता तथा शब्द की अर्थवत्ता को नया सन्दर्भ प्रदान किया है। इस प्रसंग में इस कृति के प्रस्तवन' (पृ. VII) से श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन की ये पंक्तियाँ उद्धृत करना ही अलम् होगा : “कवि के लिए अतिशय आकर्षण है शब्द का, जिसका प्रचलित अर्थ में उपयोग करके वह उसकी संगठना को व्याकरण की सान पर चढ़ाकर नयी-नयी धार देते हैं, नयी-नयी परतें उघाड़ते हैं। शब्द की व्युत्पत्ति उसके अन्तरंग अर्थ की झाँकी तो देती ही है, हमें उसके माध्यम से अर्थ के अनूठे और अछूते आयामों का दर्शन होता है।"
निष्कर्ष यह कि प्रस्तुत काव्य भाव सम्पदा तथा अभिव्यंजना कौशल की दृष्टि से एक अभिनव प्रयोग है। यह सफल कृति है। विचारों का विस्तृत फलक, भाव समृद्धि, ललित कल्पना, रोचक वर्णन शैली, मौलिक चिन्तन और अनूठी व्याख्याओं ने मिलकर इस दीर्घ कलेवर वाले काव्य को पठनीय और विश्वसनीय बना दिया है । मूलत: यह काव्य लोक मंगलकारी अध्यात्मचिन्तन से परिपुष्ट विचार काव्य है जिसमें अभिव्यक्ति की सहजता है, कथ्य की विश्वसनीयता है और कलात्मक चारुता है।