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मूकमाटी-मीमांसा
सबसे सदा-सहज बस/मैत्री रहे मेरी ! वैर किससे / क्यों और कब करूँ ? यहाँ कोई भी तो नहीं है / संसार-भर में मेरा वैरी !” (पृ. १०५ )
क्रोध के शमन और क्षमा भाव के उदय से विश्व मैत्री का भाव उत्पन्न होता है, इस तथ्य को कवि ने स्पष्ट रूप से समझाया है । इस खण्ड में साहित्य बोध, नव रस, संगीत की अंतरंग प्रकृति, शृंगार की सर्वथा मौलिक व्याख्या, ललित ऋतु वर्णन, कला चमत्कार आदि द्रष्टव्य हैं।
संगीत की अन्तरंग प्रकृति को कवि इस रूप में व्यक्त करता है :
"संगीत उसे मानता हूँ / जो संगातीत होता है/ और / प्रीति उसे मानता हूँ जो अंगातीत होती है/मेरा संगी संगीत है / सप्त-स्वरों से अतीत..!" (पृ. १४४-१४५)
शृंगार के सम्बन्ध में कवि की मौलिक उद्भावना और नया चिन्तन देखिए : “श्रृंगार के अंग-अंग ये / खंग- उतार शील हैं / युग छलता जा रहा है और / शृंगार के रंग-रंग ये / अंगारशील हैं, / युग जलता जा रहा है।" (पृ. १४५) 'करुण' और 'शान्त' रसों पर भी कवि ने विचार किया है और यह माना है कि 'करुण' रस में 'शान्त' रस का अन्तर्भाव नहीं हो सकता :
शान्त रस :
" करुण रस में / शान्त रस का अन्तर्भाव मानना / बड़ी भूल है ।" (पृ. १५५)
इन दोनों का स्वरूप भी स्पष्ट किया गया है :
करुण रस :
" उछलती हुई उपयोग की परिणति वह / करुणा है/ नहर की भाँति !" (पृ.१५५ )
"उजली-सी उपयोग की परिणति वह / शान्त रस है / नदी की भाँति !" (पृ. १५५)
इसी तरह वात्सल्य, वीर आदि रसों का मौलिक विवेचन और स्वरूप - निर्धारण भी हुआ है। इसी खण्ड में 'ही' और 'भी' जैसे शब्दों के द्वारा अलग-अलग जीवन-दृष्टि को तो व्यंजित किया ही गया है, साथ ही, इनके द्वारा 'पश्चिमी' और 'भारतीय' संस्कृति का पृथक् स्वरूप निर्धारण भी हुआ है :
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'ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को/ 'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, ... 'ही' पश्चिमी सभ्यता है / 'भी' है भारतीय संस्कृति, भाग्य-विधाता ।”
(पृ. १७३)
इसी खण्ड में ‘उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य - युक्तं सत्' जैसे गूढ़ सूत्र का सहज भाषा में बोधगम्य अनुवाद भी किया गया है । काव्य लालित्य, व्यापक जीवन-बोध, मौलिक उद्भावना आदि सभी दृष्टियों से यह द्वितीय खण्ड बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
तीसरे खण्ड में तन-मन-वचन की निर्मलता, शुभ कर्मों के शुचितापूर्ण सम्पादन, लोक मंगल की कामना से