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मूकमाटी-मीमांसा :: 193 "प्रतिदिन-बरसों से/रोटी बनाता-खाता आया हो /तथापि वह पाक-शास्त्री की पहली रोटी/करड़ी क्यों बनती, बेटा!/इसीलिए सुनो !
आयास से डरना नहीं/आलस्य करना नहीं !" (पृ. ११) ऐसी साफ़ और सुलझी अभिव्यक्ति तभी सम्भव है जब अभिव्यंग्य तथ्य, भाव, दृष्टि या विचार भी सुलझे और साफ़ हों। विचार की स्पष्टता तभी सम्भव है जब विचारक का मस्तिष्क और मन उलझनों की भूमि त्याग चुका हो । ये पंक्तियाँ इकहरी, सपाट और अकलात्मक, प्रथम दृष्ट्या हैं । पर क्यों ? कवि की बौद्धिक, भावपरक और सृजनात्मक क्षमता की सीमा के कारण ? नहीं, क्योंकि इसी कृति में कलात्मक पंक्तियों की कोई कमी नहीं है । सवाल जीवन-दर्शन को, चिन्तन और अनुभव से प्राप्त बोध को पाठक में प्रतिष्ठित करने का है। और इसे तो सभी स्वीकार करेंगे कि अनुभूत, सुचिन्तित विचार निरलंकृत होते हैं। मन से निकलने वाले विचार, हृदय से उमड़ने वाले भाव सहज, सरल ही होने चाहिए । अनावश्यक कल्पनातिरेक, कृत्रिम अभिव्यंजना शैली और उलझी हुई जीवन दृष्टि के कारण काव्य सम्प्रेषण की गुणवत्ता से विरहित होकर अस्वीकार्य हो जाता है । 'मूकमाटी' के कवि की कला भाव तथा विचार के अधीन है, उनके प्रति उन्मुख है । कला-कौशल का प्रदर्शन प्रस्तुत कवि का अभीष्ट नहीं है, उसका अभीष्ट है विचारसन्दोहन और विचार का पाठक हृदय में प्रतिष्ठापन। अतः वह सपाट और इकहरी भाषा-शैली के प्रयोग से हिचकता
नहीं।
'मूकमाटी' मूलत: विचार काव्य है, दर्शन का काव्य है। अत: ऊपर से देखने पर इसकी बहुत सारी पंक्तियाँ शुष्क मालूम पड़ती हैं। पर, ध्यान देने की बात यह है कि इस काव्य में आद्यन्त रोचकता बनी रहती है और पाठक को कथाक्रम के साथ विकासमान् और जीवन-प्रवाह के अनेक धरातल देखने को मिलते हैं। दूसरी खूबी यह है कि विचार दर्शन सूत्रात्मक संक्षिप्तता में सिमट कर सहज रूप से स्मरणीय हो गए हैं। गहन-से-गहन चिन्तन या विचार को कवि ने सूत्रात्मक संक्षिप्तता में समेट कर उसे स्मरणीय सूक्ति का रूप दे दिया है। ऐसी सूक्तियों की संख्या काफ़ी बड़ी है और इससे काव्य में रोचकता आ गई है, नीरसता उँटी है, पाठक के मन की ज़मीन भावुकता के रस से नहीं, विचार और ज्ञान के रस से भींग उठती है । यह रस ऐसा है जो अपने स्पर्श से ज्योतिमाला रचता है । रस और रौशनी का रसमय आलोक पर्व' इस कृति में अनेक स्थलों पर जगमगाता दीख पड़ेगा। ऐसी सूत्रात्मक सूक्तियों के कुछ उदाहरण लें :
0 "असत्य की सही पहचान ही/सत्य का अवधान है, बेटा!" (पृ. ९) 0 “पतन पाताल का अनुभव ही/उत्थान-ऊँचाई की
आरती उतारना है !" (पृ.१०) . 0 “चरणों का प्रयोग किये बिना/शिखर का स्पर्शन/सम्भव नहीं है !" (पृ. १०) 0 “आस्था के बिना रास्ता नहीं/मूल के बिना चूल नहीं।" (पृ. १०)
“मीठे दही से ही नहीं,/खट्टे से भी/समुचित मन्यन हो नवनीत का लाभ अवश्य होता है।” (पृ. १३-१४) "संघर्षमय जीवन का/उपसंहार/नियमरूप से
हर्षमय होता है, धन्य !" (पृ. १४) ऐसी ही अनेक सूत्रात्मक सूक्तियाँ पूरे काव्य में बिखरी पड़ी हैं और इस कृति को विचार और अभिव्यक्ति के स्तरों पर आर्ष कथन की भंगिमा और गरिमा प्रदान करती हैं।
आचार्यश्री ने अपनी इस कृति में 'विचार', 'आचार' और 'सम्प्रेषण' पर अपना चिन्तन स्पष्ट किया है । यहाँ