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194 :: मूकमाटी-मीमांसा
पर एक बात ध्यान देने योग्य है और वह है 'आचारों के साम्य' पर कवि द्वारा एक नया आलोकपात । कवि ने 'सम्प्रेषण' को भावबोध के लिए अनिवार्य पोषक तत्त्व माना है । साथ ही, 'सम्प्रेषण' जैसे रचना-प्रक्रिया से जुड़े तत्त्व को 'आचारसाम्य' से जोड़कर कवि ने काव्य-रचना के एक ऐसे आयाम की ओर संकेत किया है जो साधक, विचारक यति कवि की दृष्टि में ही खुलता है । यह है अध्यात्म का आयाम । अत: भाव-सम्प्रेषण पर कवि ने अपना स्वतन्त्र चिन्तन प्रकट किया है । सम्प्रेषण और मूल्य तो साहित्य के आधार स्तम्भ हैं, ऐसा आधुनिक साहित्य चिन्तक आई.ए. रिचर्ड्स भी मानते हैं।
इस भाव तत्त्व तथा सम्प्रेषण प्रक्रिया पर आचार्यश्री का चिन्तन सर्वथा मौलिक और सही है। 'सम्प्रेषण' के विकार शून्य निखार के लिए कवि का सन्देश है :
"विचारों के ऐक्य से/आचारों के साम्य से/सम्प्रेषण में
निखार आता है,/वरना/विकार आता है !" (पृ. २२) 'सम्प्रेषण' के सही रूप पर भी कवि का विचार स्पष्ट है :
"बिना बिखराव/उपयोग की धारा का/दृढ़-तटों से संयत, सरकन-शीला सरिता-सी/लक्ष्य की ओर बढ़ना ही
सम्प्रेषण का सही स्वरूप है ।" (पृ. २२) 'सम्प्रेषण' तभी सफल होता है जब वह संयत और मर्यादित हो, लक्ष्योन्मुख हो, अभिव्यक्ति सुपुष्ट और गठी हुई हो, कसी हुई हो। 'बिखराव' यदि भाषा और विचार के स्तर पर आएगा तो अभिव्यक्ति शिथिल और अस्पष्ट हो जाएगी। 'सम्प्रेषण' के दुरुपयोग तथा सदुपयोग पर भी विचार किया गया है । कवि की दृष्टि में दुरुपयोग होना यह है :
"संप्रेष्य के प्रति/कभी भूलकर भी/अधिकार का भाव आना
सम्प्रेषण का दुरुपयोग है,/वह फलीभूत भी नहीं होता!" (पृ. २३) कवि की दृष्टि में सहकार के भाव से सम्पृक्त होकर ही सम्प्रेषण सफल होता है :
“सहकार का भाव आना/सदुपयोग है, सार्थक है ।" (पृ. २३) इस ‘सम्प्रेषण' को अर्थात् अभिव्यक्ति को, सृजन-प्रक्रिया को कवि भाव-सम्पदा का पोषक तत्त्व मानता है, इसे वह स्वाद' की संज्ञा देता है । यह ऐसा स्वाद है जिससे तत्त्वबोध को तुष्टि और द्युति दोनों की प्राप्ति होती है :
"सम्प्रेषण वह खाद है/जिससे, कि/सद्भावों की पौध पुष्ट-सम्पुष्ट होती है/उल्लास-पाती है; सम्प्रेषण वह स्वाद है;/जिससे कि/तत्त्वों का बोध
तुष्ट-सन्तुष्ट होता है/प्रकाश पाता है।" (पृ.२३) सच ही, सम्प्रेषण-प्रक्रिया की सार्थक परिणति उल्लास भाव की सृष्टि में होती है और सम्प्रेषण ही वह स्वाद है जिससे जुड़कर तत्त्वबोध प्रकाशमय हो उठता है । कवि सम्प्रेषण के साधन की आरम्भिक बोझिलता और निस्सारता के साथ-साथ सम्प्रेषण की अभ्यासजन्य सहजता पर भी विचार करता है और इसे एक सामान्य उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर देता है: