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________________ 'मूकमाटी' : एक विहंगावलोकन प्रो. अजीत कुमार वर्मा कविता भावना का उद्गीथ है, जाग्रत आत्मा का संगीत है और है वह बहुविध विचारणाओं का प्रपानक । कविता में भावना की लोरियाँ गुनगुनाती हैं, कामनाओं के सपने झिलमिलाते हैं; कविता आत्मा के सत्यान्वेषी ऊर्ध्वारोहण की यात्रा गाथा है, कविता विचारों के सन्दोहन का तत्त्व-संचयी पावन यज्ञ है । कविता अनुभूति है, चिन्तन है, विद्या है, कला है । कविता कल्पना भी है, यथार्थ भी; अनुमान भी है और सत्य-सन्धान भी । कविता कभी ध्यान के फलक पर चित्रित होती है, कभी ज्ञान के सरोवर में, कमल की पंखुड़ियों में खिलती है । कविता मानस में उतरकर विचार में कौंधती है, चिन्तन में कौंधती है । वह हृदय में डूबकर अनुभूति का रस बनती है । कविता कभी हृदय उमड़ती है तो कभी मस्तिष्क से उभरती है । और, सच्ची और अच्छी बात तो यह है कि ऊँची कविता हृदय और मस्तिष्क की, अनुभूति और चिन्तन की, स्वप्न और यथार्थ की समन्वित सन्तुलित झंकृति है । तत्त्वबोध और रसबोध के समन्वय की ज़मीन पर कविता - सच्ची, टिकाऊ और ऊँची कविता - जन्म लेती है और हृदय से लेकर मस्तिष्क के आकाश तक कविता का यह मस्त मुक्त, पाखी निर्बाध रूप से उड़ता रहता है । कविता के उड़न- पाखी के पाँव में ज़मीन की धूल भी लगी रहती है तो उसके पंख में आकाश की अनन्तता समाहित हो उठती है । कविता, अपने अस्तित्व के लिए, कल्पना, व्यापक और सूक्ष्म निरीक्षण, गहन चिन्तन और तीव्र संवेदनशीलता से रचनात्मक ऊर्जा प्राप्त करती है। इस तरह श्रेष्ठ कविता में वैचारिकता और भावुकता का मणि- कांचन संयोग रहता है। आचार्य विद्यासागरजी की कृति 'मूकमाटी' वस्तुत: विचारशीलता और भावप्रवणता की समन्वित सन्तुलित परिणति है । इस कृति का भावलोक विमुग्ध मन का स्वप्न दर्शन भर नहीं है बल्कि एक उदात्त स्वप्न के सत्यापन का सर्जनात्मक कर्म - लोक है । इस कृति का विचार जगत् तर्कशील मस्तिष्क की शुष्क सृष्टि नहीं है । इसके विचार अनुभव, अनुचिन्तन और सूक्ष्म निरीक्षण से सम्पुष्ट एवं संवर्द्धित हुए हैं। 'मूकमाटी' का कवि शब्दों का कलाकार मात्र नहीं है और इसलिए यह कृति कल्पना तथा भावना की शब्द लीला मात्र नहीं है। यह एक तत्त्वान्वेषी चिन्तक की काव्यरचना है, एक स्पष्ट और स्वच्छ चित्त वाले साधक की रचना - यात्रा की शब्दात्मक गाथा है। अत: इसमें विचार साफ़साफ़ व्यंजित हुए हैं । सहज, परिचित उदाहरणों से अपना मन्तव्य कवि देखते-देखते पाठकों के हृदय में उतार देता है । 'मूकमाटी' का कवि जीवन के सुष्ठु विकास के लिए, उसकी सार्थक मंगलमयी परिणति और चरितार्थता के लिए संयम, साधना और अभ्यास 'आवश्यक मानता है । यह एक अनुभवसिद्ध सत्य है । इस सत्य को कवि सुपरिचित उदाहरण तथा अत्यन्त सरल भाषा द्वारा पाठक के मन तक सम्प्रेषित करता है : " प्राथमिक दशा में / साधना के क्षेत्र में / स्खलन की सम्भावना पूरी बनी रहती है, बेटा !” (पृ. ११) इन पंक्तियों में निवेदित अनुभव सिद्ध सचाई को कवि अत्यन्त सहज उदाहरण द्वारा स्वीकार्य बना देता है : " स्वस्थ - प्रौढ़ पुरुष भी क्यों न हो / काई लगे पाषाण पर पद फिसलता ही है !" (पृ. ११) विचारक कवि ने जीवन की सफलता के साधनों का रहस्य सहज-सरल शब्दों में खोल दिया है। 'रहस्य' को रहस्यमयी भाषा में ढँककर वह नहीं प्रस्तुत करता । वह सफलता की कुंजी को बड़े साफ़ ढंग से समझा देता है :
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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