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________________ 'मूकमाटी' : एक पर्यालोचन डॉ. रमण लाल पाठक अध्यात्म और काव्य की समरसता हिन्दी के आधुनिक महाकाव्यों में 'मूकमाटी' का स्थान विशिष्ट है क्योंकि इसके रचयिता आचार्य विद्यासागरजी कविकर्म में कुशल होने के साथ-साथ अध्यात्म मार्ग के पुरोधा हैं । आचार्यजी का जीवन आध्यात्मिकता के सर्वोच्च विकास की ओर उन्मुख रहा है। प्रतिपल अध्यात्म जीवन में जीने वाला प्रबुद्धयोगी जब कविकर्म में प्रवृत्त होता है तब उसकी अभिव्यक्ति में काव्य और अध्यात्म का मणिकांचन योग दृष्टिगत होता है । गहरे आध्यात्मिक संस्पर्शों से अलंकृत होने पर भी 'कामायनी' कार प्रसादजी, 'साकेत'कार मैथिलीशरण गुप्त, 'लोकायतन' के शिल्पी सुमित्रानन्दन पन्त, 'उर्वशी' के रचयिता दिनकरजी आदि स्वनाम धन्य कविपुंगवों की तुलना आचार्य विद्यासागरजी के साथ नहीं की जा सकती, क्योंकि विद्यासागरजी के कविकर्म में अध्यात्म और काव्य की सहज समरसता विशेष रूप से समुपलब्ध होती है और उसका रहस्य यह है कि आचार्यजी पहले योगी हैं और बाद में कवि । विद्यासागरजी के कविकर्म-आलोचकों को कृति के इस वैशिष्ट्य को विशेष रूप से रेखांकित करना पड़ेगा। आत्मा का संगीत 'मूकमाटी' कविकर्म नहीं है । यह एक दार्शनिक सन्त की आत्मा का संगीत भी है। हाँ, सन्त संज्ञा के आगे दार्शनिक विशेषण जोड़ने की कोई अनिवार्य आवश्यकता प्रतीत नहीं होती, क्योंकि दार्शनिक सन्त शब्द एक विशिष्ट अवधारणा का संकेतक बन जाता है। वास्तव में 'मूकमाटी' में प्रकट रूप से कहीं भी जैन दार्शनिकता के प्रतिपादन का बलपूर्वक आयास दृष्टिगोचर नहीं होता । सन्त ने साधना और तपस्या से अर्जित जीवन दर्शन को सबके हृदय में गुंजरित कर देने का प्रयत्न मात्र किया है। मुझे तो आत्मा का संगीत' विशेषण ही एक मात्र उपयुक्त प्रतीत होता है, क्योंकि आत्मा का संगीत तत्त्वत: आत्मा का संगीत होता है । दार्शनिक की आत्मा, अ-दार्शनिक की आत्मा, सन्त की आत्मा, अ-सन्त की आत्मा आदि शब्द-विधान निरर्थक हैं, क्योंकि आत्मा तो आत्मा होती है, किसी के दार्शनिक-अ-दार्शनिक, सन्त या असन्त होने से आत्मा विशिष्ट नहीं बन जाती । वालिया लुटेरे की आत्मा जब कषायों से मुक्त-अनावरित होती है तब वह महाकवि वाल्मीकि बन जाता है। अनुभूति में रचा-पचा जीवन श्री लक्ष्मीचन्द जैन द्वारा लिखित कृति के प्रस्तवन' में प्रयुक्त जीवन दर्शन को अनुभूति में रचा-पचा कर' वाक्य महत्त्वपूर्ण है । इसका यह अर्थ है कि विद्यासागरजी ने परम्परा सम्मान्य जैन जीवन-दर्शन को शास्त्र-ग्रन्थों से पढ़ा मात्र नहीं है, साधना के द्वारा उसे अर्जित भी किया है और जीवन-दर्शन के अर्जन तक ही न रुककर उसे स्वानुभूति में रच-पच जाने के अनन्तर ही 'सर्वजन हिताय' सुलभ बनाया है। काव्य को दत्तचित्त होकर पढ़ने से अनुभव होता है कि वह कवि के जीवन का अभिन्न अंग या जीवन स्वाभाविक रूप, रंग बन गया है। ज्यों-ज्यों काव्य पठन में आगे बढ़ते हैं त्यों-त्यों यह अनुभव होता है कि प्रस्तुत जीवन दर्शन विविध प्रसंगों एवं परिवेशों में से अपने आप कुसुमकली के नैसर्गिक विकास के समान उद्घाटित होता चलता है।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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