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मूकमाटी-मीमांसा :: 187
अविनश्वर सुख की समुपलब्धि
___ कृति के अन्त में आतंकवाद के द्वारा 'तुम्हारी भावना पूरी हो' ऐसा वचन देने के लिए की गई प्रार्थना के प्रत्युत्तर में नीराग साधु के द्वारा 'हित-मित-मिष्ट वचनों में जो प्रवचन दिया जाता है कि विश्वास को अनुभूति मिलेगी, अवश्य मिलेगी'-शब्दावली अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। दिशाबोधक प्रस्तुत कथन में इस बात का अभय वचन है कि साधक को नीराग साधु और सिद्धपुरुष के धर्म प्रवचनों पर दृढ़ विश्वास रखकर संयमभूत आचरण के द्वारा साधना के मार्ग पर धैर्यपूर्वक आगे ही बढ़ते रहना चाहिए। साधना मार्ग की अन्तिम परिणति बन्धन रूप तन, मन और वचन के समूल मिट जाने पर मोक्ष में होती है । मोक्ष-प्राप्ति उस अनिवार्य शुद्ध दशा की पीठिका है जिसमें अविनश्वर सुख की सम्प्राप्ति होती है, और जिसे अविनश्वर सुख की समुपलब्धि होती है उसके पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्' वाली दशा अर्थात् संसार में आवागमन की परम्परा सदैव के लिए मिट जाती है। छन्दविधान
___ मुक्त छन्द के राजमार्ग पर 'मूकमाटी' की कविता चलती है। इसमें शब्दलय के साथ-साथ अर्थलय अर्थात् अर्थ की गति 'फ्लो ऑफ मीनिंग' का भी विशेष ख्याल रखा गया है । अर्थगति के उपरान्त इसमें अर्थ की संगति अर्थात् 'रिव्रेटिक मीनिंग फुलनेस' का निर्वाह भी सफल बन पड़ा है। यह 'मूकमाटी' की एक बड़ी उपलब्धि है। 'मूकमाटी' की प्रबन्धात्मकता के निर्वाह में इस अर्थ संगति ने विशेष योग दिया है। किन्तु यह भी अवश्य है कि अनेक स्थानों पर कवि अनुप्रास योजना और तुक चातुर्य के व्यामोह से बच नहीं पाया है और यह वे स्थल हैं जहाँ कृति की महाकाव्यात्मक अर्थ-चुस्ती बिखर जाती है । इस कारण छन्दमयता की दृष्टि से 'मूकमाटी' को महाकाव्य की वास्तविक गरिमा प्राप्त नहीं हो सकी है। तुलसीकृत रामचरितमानस' और 'मूकमाटी'
___ 'मूकमाटी' महाकाव्य 'रामचरितमानस' की भाँति 'स्वान्त:सुखाय' प्रणीत न होकर सर्वसाधारण जैनी के मार्गदर्शन के लिए ही लिखा गया है । हाँ, यह बात अलग है कि तुलसी ने 'रामचरितमानस' के 'स्वान्तःसुखाय' के निमित्त सर्जन करने की बात कही है फिर भी वह अधिकत: 'बहुजनहिताय' ही है । 'मूकमाटी' भी 'बहुजन - हिताय' ही लिखा गया है और यही कारण है कि दैनिक जीवन में क्लेशोत्पादक अवसरों और प्रसंगों को निमित्त बनाकर कवि ने ऐसी परिस्थितियों में लोगों को संयम, अहिंसा, क्षमा आदि का आचरण करने का उपदेश बार-बार दिया है। कहीं-कहीं ऐसा लगता है कि कवि ने उपदेश दे पाने के लिए इन छोटे-छोटे प्रसंगों की अवधारणा की है। चतुर्थ खण्ड में तो ऐसा लगता है कि उपदेश प्रदान करने के लिए ही उसकी रचना की गई है । फलत: महाकाव्य की कथावस्तु में बिखराव अधिक है, कहीं भी चुस्ती, लाघव, कसावट और कृति के मूल प्रतिपाद्य नुकीले ढंग से गति दृष्टिगत नहीं होती। तुलसी ने रामचरितमानस' में कोई भी ऐसा स्थान नहीं छोड़ा है जहाँ वे राम की ब्रह्ममयता का प्रकट वर्णन या उसके प्रति संकेत तक न करते हों, जबकि 'मूकमाटी' में आत्म-साधना के सर्वोच्च विकास या ईश्वरत्व की प्राप्ति के लिए अपेक्षित साधना-सोपानों का सर्वांगीण एवं तार्किक प्रतिपादन कहीं भी नहीं किया। फिर भी जैन धर्म के अनुयायियों के लिए प्रस्तुत कृति अपनी ऋजु भाषा-शैली में सद्गृहस्थ के पवित्र जीवन जीने की रीति-नीतियों के निरूपण के कारण 'रामचरितमानस' की-सी ही लोकप्रिय हो सकती है, बशर्ते इसका सम्यक् प्रचार-प्रसार किया जाए।