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________________ 184 :: मूकमाटी-मीमांसा सहजतः हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं । कृष्ण मिश्र के 'प्रबोध-चन्द्रोदय, यश:पाल रचित 'मोहराज पराजय वेदान्तदेशिक कृत 'संकल्पसूर्योदय', परमानन्ददास या कर्णपूर के चैतन्यचन्द्रोदय आनन्दराय मखी प्रणीत विद्यापरिणयन' एवं जीवा नन्दन', नल्लाध्वरी रचित 'चित्तवृत्ति-कल्याण' एवं 'जीवन्मुक्ति-कल्याण' आदि संस्कृत नाटकों और प्राकृत के 'उत्तराध्ययन सूत्र', 'सूत्रकृतांग' आदि जैन ग्रन्थों तथा हरिदेव के अपभ्रंश प्रबन्धकाव्य 'मयणपराजय चरिउ' में जो आन्यापदेशिकता मिलती है, उसे इस महाकाव्य की रूपकात्मकता का स्वाभाविक आधार मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है। हिन्दी में इसकी परम्परा के विश्लेषण क्रम में सूफियों का प्रेमगाथा साहित्य प्रासंगिक है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मलिक मुहम्मद जायसी की 'जायसी ग्रन्थावली' (पृ. ५४) में और डॉ. रामकुमार वर्मा ने 'हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' (पृ. ३२८) में जायसी की 'पदमावत' में अन्योक्ति शैली लक्षित की भी है। हिन्दी रीतिकाव्य के पितामह केशवदास की 'विज्ञानगीता' तो 'प्रबोधचन्द्रोदय' की छाया ही है । आधुनिक हिन्दी-साहित्य में जयशंकर प्रसाद की कामना' एवं सुमित्रानन्दन पन्त की ज्योत्स्ना' में इस शैली की नाटकीयता दृष्टिगत होती है । 'कामायनी' आधुनिक हिन्दी महाकाव्यों के क्षेत्र में इस पद्धति को पूर्णत: प्रतिष्ठित करती है। 'मूकमाटी' इस समाम्नातपूर्व बन्धगत वैशिष्ट्य को एक सुचिन्तित विस्तार देती है। 'कामायनी' देवसृष्टि के अन्तिम प्रतिनिधि के शिवत्वलाभ का आख्यान है, किन्तु 'मूकमाटी' तुच्छता की उच्चता-प्राप्ति का महाकाव्य है । आचार्य विद्यासागर की यह कृति हिन्दी महाकाव्य को मनु से 'माटी' और 'कैलास' से कुम्भ की ओर ले आती है। प्रजापति मनु से घट-निर्माता प्रजापति तक पहुँचने की यह महाकाव्य यात्रा चिरन्तन अध्यात्म एवं आम आदमी के आधनिक महत्त्व को उसी तरह समानान्तर ढंग से व्यक्त करती है जिस तरह 'मिथक' की सावित्री यम को पराभूत कर अपने लकड़हारे पति की प्राणरक्षा करती है। मिट्टी से हीनतर एवं किसी भी वस्तु की अपेक्षा अधिक नश्वर 'माटी' की प्रतिष्ठा तथा कुम्भत्व में उसके उन्नयन की जो आन्यापदेशिकता आलोच्य कृति में मिलती है, वह दैहिक-ऐहिक यथार्थ और आध्यात्मिक सत्य की सम्मिलित गाथा 'सावित्री' की प्रतीक-योजना से होड़ लेती है। जिस तरह महर्षि अरविन्द के महाकाव्य में दीन सत्यवान की कथा और मत्यविजय के आध्यात्मिक रूपक का योग अनुदात्त में उदात्त के संग्रथन का परिचायक है, उसी तरह 'मूकमाटी' में अधमत्व को अमरत्व देने का प्रयास किया गया है । महाकाव्यगत भामहोक्त महत्ता का यह विपर्यय सत्य के स्याद्वादी स्वरूप की प्रतीति कराता है कि स्यात् लघुता में भी महत्ता का एक आयाम होता है। "मृदु माटी से/लघु जाति से/मेरा यह शिल्प/निखरता है।" (पृ.४५) .. जैन-दर्शन के 'सप्तभंगी नय' में ईश्वर नहीं, मामूली ‘घट' को दृष्टान्त-रूप में उपस्थापित करने का कदाचित् यही मर्म है। पृ. ४३४ अपहों के उखसे पदों की, पहवालोंकी परिणति-पति सुनक “परिवर स्तंभित हुआ।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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