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मूकमाटी-मीमांसा :: 183
ठोंकने वाली अपनी थापी की सहायता से जाँचकर यह निश्चित रूप से बतला सकता हूँ कि उक्त मण्डली में से कौन पक्का और कौन कच्चा मनुष्य समझा जा सकता है। इतना ही नहीं, उन्होंने सचमुच अपनी थापी उठायी और वे क्रमश: सबके शिर को उससे ठोंक-ठोंककर अपनी सम्मति देने लगे।"
'मूकमाटी' भारत के जातीय साहित्य की अन्तश्चेतना से ओत-प्रोत है। इसमें वैदिक भूमि-प्रेम की व्यापकता, लघुता की गरिमा के ख्यापक आर्ष महाकाव्यों की समदर्शिता, निर्गुणपन्थी सन्तों की वाणियों में गूंजती दलितों एवं अपात्रों की अस्मिता, स्वातन्त्र्य-समर में तपने वाले जनों की मनस्विता, तथाकथित प्रगतिवाद की यथार्थवादिता तथा सनातन अध्यात्म-साधना की प्रतीकात्मकता एक साथ सम्पुटित है । भारतीय साहित्य के इस महाघ रिक्थ को स्वायत्त करने के कारण यह रचना अनायास ही महाकाव्य का कलेवर धारण कर लेती है । अपनी परम्पराओं को सफलता के साथ आत्मसात् करने वाली यह रचना टी. एस. इलियट की कसौटी पर 'क्लॉसिक' सिद्ध होती है। किसी 'पिरामिड' की तरह इसकी अद्वितीयता इस अर्थ में चरितार्थ होती है कि यहाँ माटी' जैसे अतिशय साधारण विषय को अपार सम्भावनाओं एवं अर्थगत असाधारण व्यंजनाओं से गर्भित कर दिया गया है।
प्रारम्भिक संस्कृत-काव्यशास्त्र के भरतोत्तर आचार्यों में अन्यतम भामह ने 'काव्यालंकार' (१/१९) में 'सर्गबद्धो महाकाव्यं महता च महच्च यत्' के अनुसार 'महत्' तत्त्व को महाकाव्य का मूलाधार माना है । यह महत्ता कभी सद्वंशजात, कौलीन्यमूलक और पाश्चात्य विचारक लोगिनुस के 'सब्लाइम' या औदात्त्य के निकट रही है तो कभी नगण्यता में निहित पाई गई है। भारतीय काव्यशास्त्र की भूमिका' (भाग २, पृ. ४०३) में डॉ. नगेन्द्र का अभिमत है: "लांजाइनस के प्रसिद्ध निबन्ध का प्रतिपाद्य है 'उदात्त भावना' । यह 'उदात्त भावना' निश्चय ही जीवन और काव्य के असाधारण तत्त्वों पर आधृत रहता है।" इतना ही नहीं, 'काव्य में उदात्त तत्त्व' (पृ. १०) में आपने उल्लेखित किया है : "लोगिनुस ने औदात्त्य के पाँच उद्गम स्रोतों का निर्देश किया है। इन पाँचों में प्रथम और सर्वप्रमुख है महान् धारणाओं की क्षमता'..।" वस्तुतः भारतीय शब्द विराट उदात्त की समग्र धारणा को व्यक्त करने में अधिक समर्थ है...। .. भारतीय काव्यशास्त्र में उदात्त का विवेचन प्रत्यक्ष एवं स्वतन्त्र रूप से नहीं किया गया। किन्तु धीरोदात्त नायक, वीर और अद्भुत रस तथा ओज गुण के विवेचन में उदात्त के भाव-विभाव पक्ष की और गौड़ी या रीति तथा उदात्त अलंकार प्रसंगों में उसके शैली पक्ष की अप्रत्यक्ष विवक्षा अवश्य मिलती है" (पृ. २४) । छोटों और उपेक्षितोंउपेक्षिताओं के प्रति पर्याप्त संवेदनशील हिन्दी में महाकाव्यनिष्ठ महत्ता की अवधारणा सामन्तीय एवं जड़ नहीं, जनवादी तथा विकसनशील दृष्टिगत होती है। हम महादेवों, महाराजाओं, महामन्त्रियों और महानायकों में ही नहीं, मर्दित मिट्टी में भी महत्ता की सत्ता का अनुभव कर लेते हैं।
___महाकाव्य के रूप में 'मूकमाटी' एक रूपक (Allegory) है। 'दि न्यू एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (पृ. २७७) के अनुसार : "allegory, the written, oral or artistic expression by means of symbolic fictional figures and action of truths or generalizations about human couduct or experience." ऐसा समझा जाता है कि इस तरह का रूपबन्ध विजातीय है। इस क्रम में जॉन बनयन की गद्यात्मक कृति 'पिलग्रिम्स प्रोग्रेस और दाँते की 'डिवाइना कामेडिया' का स्मरण आना अस्वाभाविक नहीं है, किन्तु संस्कृत-प्राकृत के विशाल अन्योक्तिसाहित्य की विरासत सँभालनेवाली हिन्दी की किसी रचना की आन्यापदेशिकता की अवगति के लिए पश्चिमाभिमुखी होना आवश्यक नहीं है। संस्कृत साहित्य का इतिहास' (पृ. ५९१) में पं. बलदेव उपाध्याय के अनुसार : "संस्कृत साहित्य में एक नये प्रकार के रूपक उपलब्ध होते हैं जिसमें श्रद्धा, भक्ति आदि अमूर्त पदार्थों को नाटकीय पात्र बनाया गया है। कहीं तो केवल अमूर्त पदार्थों की ही मूर्त-कल्पना उपलब्ध होती है और कहीं पर मूर्त-अमूर्त दोनों का मिश्रण है। ...इस प्रकार के नाटकों को हमने 'प्रतीक नाटक' की संज्ञा दी है, क्योंकि इनके पात्र अमूर्त पदार्थों के प्रतीक-मात्र होते हैं; उनकी भौतिक जगत् में स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती।" संस्कृत के प्रतीक-नाटक और जैन-परम्परा के 'निक्षेप'