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182 :: मूकमाटी-मीमांसा
रामधारी सिंह दिनकर में मिलती है । गुप्तजी ने अपनी कृति 'मंगल घट' में तथा 'राष्ट्र कवि मैथिलीशरणगुप्त अभिनन्दन ग्रन्थ' में भी युगीन मिट्टी की साधना को ‘मंगल घट' के रूप में परिणत होते दिखलाया है :
"फिर भी तुझको तपना होगा/क्लेशों से न कलपना होगा
यों मंगल घट अपना होगा/भर घर-घर-धर आऊँ/मेरी मिट्टी, मैं बलि जाऊँ।" दिनकर ने अपनी 'अचेतन भृत्ति, अचेतन शिला', 'सामधेनी' में कल्पक की प्रतीक्षा में पड़ी हुई 'अचेतन मृत्ति' की स्पृहा एवं नियति को आकार दिया है :
"ग्रहण करती निज सत्य-स्वरूप/तुम्हारे स्पर्शमात्र से धूल,
कभी बन जाती घट साकार/कभी रंजित, सुवासमय फूल।" __वे ही 'ओ ज्वलन्त इच्छा अशेष', 'प्रतीक' के अन्तर्गत बलिसिक्त भूमि' में अंकुरों का प्रस्फुटन सम्भव बनाने वाली मिट्टी की जिस तरह अभ्यर्थना करते हैं:
"काया प्रकल्प के बीज मृत्ति में ऊँघ रहे ।" "अंजलि-भर जल से भी उगते दूर्वा के दल वसुधा न मूल्य के बिना दान कुछ लेती है। औ' शोणित से सींचते अंग हम जब उसका
बदले में सूरज-चाँद हमें वह देती है।" अज्ञेय उसकी वासन्ती 'ईहा' से चमत्कृत हैं और सुमित्रानन्दन पन्त उसके दान के प्रति नतशिर हैं :
“वसन्त के उस अल्हड़ दिन में एक भिदे हुए, फटे हुए लोंदे के बीच से बढ़कर अंकुर ने/तुनुक कर कहा/मिट्टी ही ईहा है !..."
(अज्ञेय, मिट्टी की ईहा', 'पूर्वा') "रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ !"
__-(पन्त, 'आ: धरती कितना देती है !', - 'तारापथ') 'मूकमाटी' हमारे साहित्य में निहित इसी मृत्तिका-प्रेम को एक महाकाव्यात्मक आयाम देने वाली कृति है। वैराग्य और तितिक्षा की श्रमण-परम्परा के कवि की मिट्टी के प्रति यह उन्मुखता विचारणीय है।
आचार्य विद्यासागरजी मुनि हैं । मौन रहना उनकी तपस्या है। उनकी माटी' भी 'मूक' है । यह मूकता मिट्टी और कवि-दोनों की साधना है । इसकी मुखरता लोक-जीवन के लिए तपस्या की उपादेयता है । विरति की यह लोकानुरक्ति जीवनगत साफल्य को रेखांकित करती है । निवृत्तिपरक सन्त-परम्परा में लोकनिष्ठा और सामाजिक मंगल की अभीप्सा का कभी अभाव नहीं रहा है । यह अकारण नहीं है कि महाराष्ट्र के सन्त गोरोवा या गोरा कुम्हार सिद्धि की परिपक्वता के परीक्षण के लिए पके घड़े को प्रतिमान मानते हैं। विनोबाजी (गीता प्रवचन', पृ. ४०) मानते हैं : “कच्ची मिट्टी को रौंद-रौंदकर समाज को पक्की हँड़िया देनेवाला गोरा कुम्हार अपने मन में ऐसी पक्की गाँठ बाँधता है कि मुझे अपने जीवन की भी हँडिया पक्की बना लेनी चाहिए । इस प्रकार वह हाथ में थपकी लेकर 'हँड़िया कच्ची है या पक्की ?'- यों सन्तों की परीक्षा लेनेवाला परीक्षक बन जाता है।" परशुराम चतुर्वेदी-'उत्तरी भारत की सन्तपरम्परा' (पृ. ११२) में लिखते हैं : "... ज्ञानदेव की बहन मुक्ताबाई के पूछने पर गोरावा ने कहा कि मैं मिट्टी के बर्तन