SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'मूकमाटी' : लघुता की महत्ता का महाकाव्य प्रोफे. (डॉ.) प्रमोद कुमार सिंह भारतीय परम्परा कवि को मन्त्रद्रष्टा स्वीकार करती है। यह ऋचाओं को मन्त्र और अनुष्टुपों को आर्ष वाणी मानती है । इसके महाकाव्यों में अपदार्थ क्रौंची (वाल्मीकि, 'रामायण', बाल काण्ड, २/१९) और कुत्ते (महाभारत, आदिपर्व-पौष्यपर्व, ३/२)के क्रन्दन मुखरित होते हैं। इसकी समदर्शिता हि 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' के महावाक्य में झंकृत होती है । हम हर वामन में विराट को देखने के अभ्यासी रहे हैं। हमारा वामन समग्र देश-काल को ढाई पगों में ही मापने का पराक्रम करता रहा है । लघुता की महत्ता की यह स्वीकृति भारतीय मनीषा की चिर-परिचित प्रवृत्ति रही है । आचार्य विद्यासागर की 'मूकमाटी' में पदाक्रान्त मृत्तिका के गूंगेपन को स्वर देने के पीछे हमारी यही सनातन प्रगतिशीलता लक्षित होती है। _ हिन्दी में एक समय रामधारी सिंह दिनकर के साथ अमूर्त आकाश से ठोस 'मिट्टी की ओर' अग्रसर होने का नारा सुमित्रानन्दन पन्त ने भी प्लुत स्वर में उछाला था। उस हल्ले को प्रगतिवाद ज्ञापित किया गया था । लोग धरती की धूल और अकिंचन विषयों के प्रवक्ता बन बैठे थे । हिन्दी के राजपथ पर पत्थर तोड़ने वाली मजरिन आ बैठी थी (सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', 'अनामिका') और कवियों को कूड़ा-कर्कट भी रुचिकर लगने लगा था । हम रद्दी चीजें बटोरने वाले आवारा लड़कों (पन्तजी-'तारा पथ') और 'मैले आँचल' (पन्तजी-'पुष्करिणी') के मुरीद हो गए थे। इस स्थिति को भारतीय साहित्य में एक नया मोड़ माना गया था, किन्तु उस युग के उत्साही आलोचक यहीं पर चूक भी गए थे। उन्होंने अपनी सुदीर्घ परम्परा में निहित प्रगतिशील मूल्यों की पड़ताल का प्रयत्न नहीं किया । मार्क्सवाद ने उन्हें इतना मोहान्ध कर दिया था कि सुदूर अतीत के मानववादी मूल्य ही नहीं, छायावाद के जीवन्त तत्त्व भी उनके लिए अगोचर बने रहे । वे हिन्दी के बगीचे में गुलाब और कुकुरमुत्ते की खेती के खेल में उलझे रहे, किन्तु नये पत्तों के निकट उन्हें पुराने पुष्पों के परिमल की याद नहीं आई। स्वयं 'कुकुरमुत्ता' के कवि निरालाजी की 'परिमल' में प्रकाशित कण' शीर्षक छायावादी कविता की ये पंक्तियाँ भी उनका मार्गदर्शन नहीं कर सकीं : "पड़े हुए सहते हो अत्याचार/पद-पद पर सदियों के पद-प्रहार, बदले में, पद में कोमलता लाते/किन्तु हाय, वे तुम्हें नीच ही हैं कह जाते ! तुम्हें नहीं अभिमान,/छूटे नहीं, न प्रिय का ध्यान, इससे सदा मौन रहते हो,/क्यों रज, विरज के लिए ही इतना सहते हो?" भारत मिट्टी की महिमा का उद्गाता रहा है । 'अथर्ववेद' (१२/१/१/२६) का 'पृथिवीसूक्त' ही नहीं, धरित्री श्रद्धेया पुत्री सीता से सम्पृक्त समस्त राम-साहित्य से इसकी पुष्टि होती है । मिट्टी खानेवाले दामोदर और गोचारण की धूलि से विभूषित कृष्ण भी इस सत्य को स्वस्ति देते हैं। आहत मध्यकालीन भारत के जुझारू कवि कबीर (कबीर वचनावली-४१०) ने सबको सर्व कर देने वाली 'माटी' के महत्त्व की जो साखी दी है उससे देश के तत्कालीन निष्पेषित एवं रौंदे गए दीनजनों के दर्प की प्रतीति बेमिसाल होती है । अध्यात्म में लिपटा हुआ यह युगावेश बेमिसाल है : "माटी कहै कुम्हार को तूं क्या रूँदै मोहि । इक दिन ऐसा होयगा मैं रूंदूंगी तोहि।" पद-दलित मनुष्यत्व के इसी विनम्र, किन्तु अक्षय साहस को सन्त-साहित्य में नानक ने दूब की अपराजेय जीवनी-शक्ति के स्मरण द्वारा भी मूर्त किया है: "नानक नन्हें रहौ जैसे नन्हीं दूब । और रूख सुख जायेंगे दूब खूब की खूब ।'" आधुनिक हिन्दी-काव्य में मृत्तिका-स्तवन के कई साक्ष्य मिलते हैं। नवजागरण की ऊष्मा और स्वातन्त्र्यसंग्राम की आग में तपी देश की मिट्टी की रचनात्मक शक्ति की अच्छी पहचान राष्ट्रकविद्वय मैथिलीशरण गुप्त एवं
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy