________________
180 :: मूकमाटी-मीमांसा
इसलिए साधना के क्षेत्र में मनुष्य को दृढ़संकल्प एवं अटूट धर्म का पालन अपेक्षित है, क्योंकि :
“चिर-काल से सोती / कार्य करने की सार्थक क्षमत
धैर्य-धृति वह / खोलती है अपनी आँख / दृढ़ संकल्प की गोद में ही ।" (पृ. ६८) पुन: संयम की शिक्षा का संस्कार प्राप्त' होने पर ही शिल्पी के संयमित दोनों हाथ कार्य करने के लिए उठते हैं। जो वस्तुत: विचारवान् हैं, उन्हें ही पापकर्म से भय होता है :
आज के परिवेश में श्रमण अथवा साधु की बहुलता है लेकिन उनमें कितने हैं जो वास्तव में साधुत्व का पालन करते हैं ? इस सिलसिले में महाकवि ने स्पष्ट शब्दों में कहा है :
“कोष के श्रमण बहुत बार मिले हैं/ होश के श्रमण होते विरले ही।” (पृ. ३६१)
श्रमण अथवा श्रावक के धर्म से सम्पर्कित कितने ही विषयों के सम्बन्ध में महाकवि ने सूक्ष्मता से विचार किया है । स्वयं सफल साधक होने के कारण उनके विचारों में सच्चाइयाँ हैं, क्योंकि उन्होंने स्वयं अनुभव किया है । अत: उनके वे विचार अनुभूतियाँ की ख़राद पर घिसकर अपनी असलियत होने का दावा पेश करते हैं और कुशल साहित्य के माध्यम से जन-साधारण तक पहुँचने की क्षमता अर्जित करते हैं । उनका अनुभव सत्य कितना सटीक एवं मार्मिक बन पड़ा है:
D
O
"अन्धा नहीं, / आँख वाला ही भयभीत होता है परम- सघन अन्धकार से ।" (पृ. २३२)
O
O
" महापुरुष प्रकाश में नहीं आते / आना भी नहीं चाहते, प्रकाश-प्रदान में ही/उन्हें रस आता है ।” (पृ. २४५) " पर से स्व की तुलना करना/पराभव का कारण है दीनता का प्रतीक भी ।" (पृ. ३३९)
" किसी कार्य को सम्पन्न करते समय / अनुकूलता की प्रतीक्षा करना सही पुरुषार्थ नहीं है । " (पृ. १३)
" मूल में कभी / फूल खिले हैं ? / फलों का दल
दोलायित होता है / चूल पर ही आखिर !" (पृ. १० )
अतः 'मूकमाटी' के महाकवि बड़े ही सुसज्जित ढंग से अपने जीवन-दर्शन के आलोक में जैन दर्शन की व्याख्या करने में सक्षम हो सके हैं। दर्शन के साथ साहित्य का यह मणि- कंचन संयोग निश्चय ही सम-सामयिक साहित्य संरचना के क्षेत्र में रेखांकित करता है, ऐसा मेरा विश्वास है ।
पृ. ४८३ निसर्गसेही सन्-धातु की भाँति 'भिन्न-भिन्न उपसर्ग पा.
तुमने स्वयं को.......
हुआ!
-