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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 179 सम्यक् ज्ञान, सम्यक् शील एवं सम्यक् समाधि के रूप में अष्टांग मार्ग को समेट लिया गया है। वैदिक धर्म-दर्शन में यद्यपि ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग, भक्ति मार्ग एवं राजयोग मार्ग के रूप में अलग-अलग मार्गों का उल्लेख हुआ है, फिर भी वे मार्ग नितान्त अपने स्वरूप में एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। मोक्ष की प्राप्ति के लिए सभी भारतीय धर्मों में चारित्र अथवा आ का संयमित पालन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य माना गया है। यही कारण है कि आध्यात्मिक उन्नयन के क्रम में मनुष्य दृढ़ता से नियम - पालन का विधान है और सभी भारतीय धर्म कमोबेश आचार नियमों का पालन करते हैं। खासकर श्रमण परम्परा में अत्यधिक त्याग, तपस्या, आचार पालन, उपवास आदि पर अवधान दिया गया है। जैन धर्म श्रमण परम्परा की ही एक शाखा है । फलत: इस धर्म में आचार के सम्यक् रूप के बिना सम्यक् ज्ञान एवं दर्शन भी अधूरा है। स्वाभाविक है कि जैन धर्म में आचार पालन की दृढ़ता, संयमित जीवनयापन की अनिवार्यता अविच्छिन्न रूप में स्वीकार की गई है। यहाँ तक कहा गया है कि जिनवाणी का सार आचार ही है : " अंगाणं किं सारो ? आयारो !” (आचारांग नि.,गा.१६)। पुन: प्ररूपणा का सार आचार ही माना गया है । “सारो परूवणाए चरणे " - आस्था से पूरित संकल्प साधकों को साथी बन कर आध्यात्मिक उन्नयन में सहायक होता है : "... जीवन का / आस्था से वास्ता होने पर / रास्ता स्वयं शास्ता होकर सम्बोधित करता साधक को / साथी बन साथ देता है।" (पृ. ९) इस सन्दर्भ में बोध एवं शोध का पार्थक्य भी द्रष्टव्य है : "बोध का फूल जब / ढलता-बदलता, जिसमें वह पक्व फल ही तो / शोध कहलाता है । बोध में आकुलता पलती है / शोध में निराकुलता फलती है, फूल से नहीं, फल से / तृप्ति का अनुभव होता है।” (पृ. १०७) विचार एवं आचार वस्तुत: एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं और सम्यक् सम्प्रेषण के कारण भी । महाकवि के शब्दों " विचारों के ऐक्य से / आचारों के साम्य से / सम्प्रेषण में निखार आता है।” (पृ. २२) यहाँ तक कि इन तीनों में एकता की अपेक्षा मुनिधर्म की कुंजी है: “मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्।” नियम पालन का उल्लंघन मनुष्य को अपने लक्ष्य - पथ से च्युत कर देता है, भले ही वह मनुष्य महामानव क्यों न हो, यथा : "लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन / रावण हो या सीता राम ही क्यों न हो / दण्डित करेगा ही !” (पृ. २१७ ) पुन: असावधानी के कारण भी, अभ्यासी महापुरुष को कभी-कभी अपने पथ पर फिसलन का सामना करना पड़ता है: " प्राथमिक दशा में / साधना के क्षेत्र में / स्खलन की सम्भावना पूरी बनी रहती है, बेटा ! / स्वस्थ - प्रौढ़ पुरुष भी क्यों न हो काई - लगे पाषाण पर / पद फिसलता ही है ! / इतना ही नहीं, निरन्तर अभ्यास के बाद भी / स्खलन सम्भव है।” (पृ. ११)
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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