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178 :: मूकमाटी-मीमांसा
होता है वह तथा जीव के संयोग से पुद्गल में जो कर्मादिक रूप परिणमन होता है वह स्व-पर-निमित्तिक पर्याय है । यही कारण है कि रागादिक द्रव्यकर्म के उदय से आत्मा रागी-द्वेषी देखा जाता है । इस सन्दर्भ में महाकाव्य 'मूकमाटी' के विभिन्न कथनों में विभिन्न रूपकों के माध्यम से कर्म, भावना, लेश्याओं की समस्त प्रकृतियों के बहुविध स्वरूपों का अभिव्यंजन हुआ है, जो सहज, सरल एवं सरस है । महाकवि दर्शन के नीरस सिद्धान्तों को भी काव्य की सन्तुलित शब्दावलियों का आवरण देकर सुष्ठु एवं समझ के लायक बनाने में सफल हुआ है । बहुआयामिक रंगीले बादलों की ओट में लेश्याओं का वर्णन अपूर्व है, जो रचयिता की कुशलता का परिचायक है । नील लेश्या के चित्रण की बानगी द्रष्टव्य है:
"विष उगलता विषधर-सम नीला नील-कण्ठ, लीला-वाला-/जिस की आभा से
पका पीला धान का खेत भी:हरिताभा से भर जाता है।” (पृ. २२८) जैन दर्शन सर्वदा एवं सर्वथा ऐकान्तिक कथन का विरोधी है, इसलिए इसे अनेकान्तवादी दर्शन कहा गया है। वह मानता है कि मात्र जीव द्रव्य ही नहीं बल्कि प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है 'अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वम्' और उसके स्वरूप ज्ञान के लिए देश, काल, भाव, जाति, वर्ग आदि की अपेक्षा होती है । पुनः उसके निषेधात्मक गुणों की भी जानकारी आवश्यक है । दूसरे शब्दों में, वस्तु को सत्तात्मक अर्थात् स्व-पर्याय एवं निषेधात्मक अर्थात् पर-पर्याय दोनों का समुच्चय माना गया है । अत: वस्तु के समस्त गुणों का ज्ञान केवल सर्वज्ञ को ही सम्भव है, साधारण मनुष्य के लिए नहीं। साधारण मनुष्य के ज्ञान प्राप्ति की विभिन्न दृष्टियाँ आंशिक निर्णय के रूप में नय' कही जाती हैं और इन विभिन्न दृष्टियों का समन्वित रूप ही अनेकान्त कहा जाता है । वस्तुत: अनेकान्त विभिन्न दृष्टिभंगियों का मिश्रण मात्र नहीं है बल्कि एक स्वतन्त्र दृष्टि है, जिसके द्वारा वस्तु का पूर्ण स्वरूप प्रतिभाषित होता है । यह विराट् वस्तु को जानने की वह पद्धति है अथवा प्रकार है, जिसमें वस्तुगत विवक्षित धर्म को जानकर भी अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता है बल्कि उन्हें गौण या अविवक्षित कर दिया जाता है । इस अनेकान्तवादी पद्धति की अभिव्यक्ति स्याद्वाद द्वारा ही सम्भव है। इस सन्दर्भ में 'मूकमाटी' में अभिव्यक्त महाकवि के विचार बड़े ही नपे-तुले शब्दों में अभिव्यंजित हुए हैं, जो महाकवि के सूझबूझ एवं दार्शनिक अभिज्ञान के द्योतक हैं, यथा :
0 "एक ही वस्तु/अनेक भंगों में भंगायित है
अनेक रंगों में रंगायित है, तरंगायित !" (पृ. १४६) _ "अब दर्शक को दर्शन होता है-/कुम्भ के मुख मण्डल पर 'ही' और 'भी' इन दो अक्षरों का। ये दोनों बीजाक्षर हैं, अपने-अपने दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं। 'ही' एकान्तवाद का समर्थक है/'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक । हम ही सब कुछ हैं/यूँ कहता है 'ही' सदा, तुम तो तुच्छ, कुछ नहीं हो!'/और,/'भी' का कहना है कि/हम भी हैं तुम भी हो/सब कुछ!/'ही' देखता है हीन दृष्टि से पर को 'भी' देखता है समीचीन दृष्टि से सब को, 'ही' वस्तु की शक्ल को ही पकड़ता है ।
'भी' वस्तु के भीतरी-भाग को भी छूता है।” (पृ. १७२-१७३) सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान के सत्य ही साथ सम्यक् चारित्र की अनिवार्यता जैन धर्म में स्वीकृत है । बौद्ध धर्म में भी