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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 177 "...दीपक की लाल लौ/अग्नि-सी लगती, पर अग्नि नहीं, स्व-पर-प्रकाशिनी ज्योति है वह।” (पृ. ३७०) ज्ञान ज्योति समग्रता से साक्षात्कार करती है तथा अभेद दृष्टि प्राप्त करती है : "स्व और पर का भेद/चरमरा-सा गया है,/सब कुछ निःशेष हो गया । शेष रही बस,/आभा"आभा"आभा"" (पृ. ४२५) जैन दर्शन में सत् अथवा द्रव्य की परिभाषा है : “उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्" (तत्त्वार्थसूत्र, ५/३०)। इस परिभाषा को महाकवि बसन्त ऋतु के जाने के अवसर आम-फ़हम भाषा के माध्यम से प्रस्तुत करने में सफल हुआ है, यथा: "आना यानी जनन-उत्पाद है/जाना यानी मरण-व्यय है और/लगा हुआ यानी स्थिर-ध्रौव्य है/और/है यानी चिर-सत् यही सत्य है यही तथ्य"!" (पृ. १८५) ___ वस्तुत: यह जगत् अथवा सांसारिक प्राणियों के सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता अथवा संहारकर्ता कोई नहीं है । गुण पर्याय के कारण जगत् अथवा प्राणि मात्र अपने नए रूप को ग्रहण करते हैं और पुराने का त्याग, जिसे हम सृजन-प्रलय के नाम से जानते हैं। वस्तुत: उनका आत्यन्तिक विनाश नहीं होता है। वे तो चिरन्तन हैं। प्राणी अथवा जीव कर्मवश विभिन्न गतियों-स्थितियों में परिरमण करते रहते हैं, क्योंकि : "जैसी संगति मिलती है/वैसी मति होती है।” (पृ. ८) पुनः, सांसारिक परिवेश जीव को अपने सूक्ष्म कर्माणुओं से प्रभावित करते हैं : “कर्मों का संश्लेषण होना,/आत्मा से फिर उनका स्व-पर कारणवश/विश्लेषण होना,/ये दोनों कार्य/आत्मा की ही ममता-समता-परिणति पर/आधारित हैं।” (पृ. १५- १६) इस सन्दर्भ में यह स्पष्ट कर देना अपेक्षित है कि व्यवहार नय से जीव पर्याय के आश्रित है, निश्चय से नहीं। 'समयसार' में कहा भी है : “ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया । गुणठाणंता भावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ॥” (गाथा ६१) वर्णादिक व राग-मोहादिक गुणस्थान पर्यन्त जितने भी भाव हैं, वे व्यवहार नय से जीव के हैं परन्तु निश्चय नय से कोई भी वैभाविक भाव जीव के नहीं हैं। परमागम में पदार्थ को द्रव्य और पर्याय रूप कहा गया है । दर्शन की भाषा में इसी को सामान्य-विशेषात्मक कहा जाता है, क्योंकि वस्तु द्रव्य की अपेक्षा से सामान्य एवं पर्याय की अपेक्षा से विशेष मानी गई है। निश्चय नय ही द्रव्यार्थिक नय संज्ञा से अभिहित होता है और व्यवहार नय पर्यायार्थिक नय संज्ञा से । पुन: यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना समीचीन मालूम पड़ता है कि पर्याय दो प्रकार की होती हैं- स्व-निमित्तिक एवं स्व-परनिमित्तिक । कालादि सामान्य निमित्तों की विवक्षा न करने पर धर्म, अधर्म आदि सभी द्रव्यों का अनादिकाल से जो परिणमन चला आ रहा है, वह स्व-निमित्तिक पर्याय है और पुद्गल द्रव्य के संयोग से जीव में जो रागादिक रूप परिणमन
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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