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________________ 176 :: मूकमाटी-मीमांसा 'मूकमाटी' महाकाव्य न किन्हीं ऐतिहासिक महापुरुषों अथवा घटनाओं के आधार पर वर्णित हुआ है न किन्हीं कथा-कहानियों के कल्पित प्रमुख पात्र-पात्राओं के संस्कार पर बल्कि इस महाकाव्य के नायक-नायिका के रूप में क्रमश: माटी एवं कुम्भकार की उद्भावना की गई है, जो कर्मबद्ध आत्मा की विशुद्धि की ओर बढ़ती मंज़िलों की मुक्तियात्रा के पर्याय बन सके हैं।' स्वाभाविक है कि 'मूकमाटी' के चार अध्याय वस्तुत: जीव अथवा आत्मा के चार सन्दर्भो की व्याख्या करते हैं। प्रथम अध्याय 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' जीव के साधारणत: प्रकृति-स्वरूप का विवेचन करता है। द्वितीय अध्याय 'शब्द सो बोध नहीं: बोध सो शोध नहीं' प्रकारान्तर से सम्यक् दर्शन की अभिव्यंजना करता है। तृतीय अध्याय 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' एवं चतुर्थ अध्याय अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' क्रमश: सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक चारित्र की व्याख्या करते हैं। क्योकि इन अध्यायों में माटी ही प्रतीक रूप में जीव अथवा आत्मा के इन चारों सन्दर्भो का सूत्रधार है जो विभिन्न अवस्थाओं से गुज़रते हुए मोक्षावस्था को प्राप्त करता है । माटी वस्तुत: अन्त:सलिला की भाँति अपने व्यक्तित्व को सुरक्षित रखती हुई समस्त अवान्तर सम्बन्धित पात्रों मच्छर, मत्कुण, गुलाब के फूल एवं काँटे, सरिता, सेठ, आतंकवादी आदि के साथ अनुस्यूत दीख पड़ती है, जो यथोचित ही है। 'मूकमाटी' महाकाव्य चार अध्यायों में विभाजित जीवन के चार आयामों की व्याख्या करता है । यद्यपि वैदिक चार आयामों की स्वीकृति श्रमण संस्कृति में ठीक उसी प्रकार प्रचलित नहीं है, जिस रूप में वहाँ है । श्रमण संस्कृति में प्रकारान्तर से उसका स्वरूप संशोधित कर दिया गया है। इस महाकाव्य के 'मानस तरंग' शीर्षक के अन्तर्गत उल्लिखित भी है : "...जिसने (श्रमण संस्कृति) वर्ण-जाति-कुल आदि व्यवस्था-विधान को नकारा नहीं है परन्तु जन्म के बाद आचरण के अनुरूप, उनमें उच्च-नीचता रूप परिवर्तन को स्वीकारा है।" "वर्ण का आशय/न रंग से है/न ही अंग से, वरन्/चाल-चरण, ढंग से है।” (पृ. ४७) तात्पर्य यह है कि श्रमण-परम्परा में कर्तव्यों का पालन न जातिवाद के आधार पर स्वीकृत है, न आश्रम के आधार पर बल्कि कर्तव्य पूर्णत: मनुष्य मात्र के लिए करणीय है और वह भी समान रूप से । श्रमण-परम्परा में यदि जातियों का विभाजन हुआ भी है तो मनुष्य के कर्म के आधार पर । अत: कोई भी व्यक्ति किसी भी जाति का हो, वह अपनी योग्यता के अनुसार या तो संन्यास ग्रहण कर साधु बन सकता है, अथवा श्रावक बन कर सांसारिक कर्तव्यों का पालन करता हुआ भी यथायोग्य संन्यास का जीवन व्यतीत कर सकता है। श्रमण-परम्परा में अर्थ एवं काम को खुली छूट कभी नहीं दी गई है। 'मूकमाटी' के अन्तर्गत सेठ इसी भाव का प्रतीक बनकर उपस्थित होता है जो अन्तत: धर्म और मोक्ष की देहली पर अपना सिर टेक देता है। 'मूकमाटी' के अन्तर्गत अग्नि के माध्यम से अध्यात्म एवं दर्शन का अन्तर सहज तथा नपे-तुले शब्दों में वर्णित हुआ है, जो शलाघनीय है : "दर्शन का आयुध शब्द है-विचार,/ अध्यात्म निरायुध होता है सर्वथा स्तब्ध-निर्विचार !/एक ज्ञान है, ज्ञेय भी एक ध्यान है, ध्येय भी।" (पृ. २८९) वस्तुत: दर्शन का जहाँ अन्त होता है, वहाँ से ही अध्यात्म का प्रारम्भ होता है । यद्यपि भारतीय ज्ञान-मीमांसा अध्यात्म को भी अपने में समेटने का प्रयास करती है, लेकिन अधिकांश पाश्चात्य दार्शनिकों की दृष्टि आध्यात्मिक ज्ञान की ओर नहीं जा पाती है। दीपक के माध्यम से ज्ञान के स्व-पर-प्रकाशक स्वभाव का वर्णन बड़ा ही अच्छा बन पड़ा है :
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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