SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'मूकमाटी' महाकाव्य की दार्शनिकता डॉ. अजित शुकदेव सत् साहित्य चिन्तन एवं अनुभूति के सम्यक् समन्वयात्मक सम्प्रेषण का मंजूषा होता है, क्योकि चिन्तन जहाँ मस्तिष्कगत अपनी बहु-आयामिक व्यापकता से साहित्य को सबल, सतेज और चिरंजीवी बनाता है, वहाँ अनुभूति अपनी हृदयगत कलात्मक, गहरी भाव प्रवणता से साहित्य को सुष्ठु और संवेदनशील बनाने में सहायिका होती है । अत: चिन्तन और अनुभूति दोनों ही साहित्य के सन्दर्भ में अभिन्न हैं और दोनों ही समान रूप से साहित्य संरचना के लिए अनिवार्य तत्त्व के रूप में स्वीकृत हैं। दोनों ही सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में आत्मप्रेषण की मौलिक प्रवृत्ति के कारण देश-काल की अपेक्षा से विकसित और अभिवर्धित होते रहते हैं। यही कारण है कि कोई भी महान् साहित्यकार की कालजयी रचना अपनी सांस्कृतिक धरातल पर अपने संश्लिष्ट विचारों अथवा चिन्तन को संजोए रखती है और अपनी गूढ़ इन्द्रधनुषी अनुभूतियों को प्रक्षेपित करती हुई पाठकों के मन:प्राण को आकर्षित करती है । यद्यपि चिन्तन और अनुभूति एक ही सत्य की अभिव्यक्ति के दो पहलू हैं फिर भी दोनों एक-दूसरे के बिना अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकते । चिन्तन साहित्य के माध्यम से ही सामाजिक स्वीकृति ग्रहण करता है और उसी तरह अनुभूति भी चिन्तन की सहचरी बनकर ही शाश्वत स्वीकार प्राप्त करती है। सच तो यह है कि चिन्तन कभी भी अनुभूति से अलग नहीं होता और न आरोपित ही होता है, वरन् वह तो सर्जन-प्रक्रिया में ही अनायास सन्निविष्ट हो जाया करता है । सत् साहित्य इसी प्रक्रिया के माध्यम से ही अपने चिन्तन और अनुभूति को क्षिप्र एवं निगूढ़ बना पाता है । इस सन्दर्भ में दर्शन एवं साहित्य अन्तर्मुखी प्रवृत्ति के समान-धर्मत्व की भूमिका अदा करते हुए दोनों ही एक-दूसरे से संगुम्फित होकर जीवन सम्बन्धी उन चिरन्तन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयत्न करते हैं, जो समय के अन्तराल में परिस्थितियों के द्वारा उठाए जाते हैं । अत: साहित्य सर्वदा सांस्कृतिक नींव पर ही खड़ा होकर वर्तमान चिन्तन एवं अनुभूति को अपने में आत्मसात् करता हुआ विकसित होता रहता है और भविष्य का भी प्रेरणास्रोत बन जाता है। पुन: मानसिकता के समान-धर्मत्व के कारण साहित्य दर्शन से कभी भी अलग नहीं होता, बल्कि अनुभूत सत्य को समस्तरीय प्रदान करने के लिए सर्वदा प्रस्तुत रहता है। इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि साहित्य का चरमोत्कर्ष अथवा परिणति दर्शन ही है और उसी प्रकार सार्वजनीन स्वीकृति अथवा सामाजिक प्रतिष्ठा-प्राप्ति के लिए दर्शन का चरमोत्कर्ष साहित्य ही होता है । साहित्य तब पूर्ण कहलाने का अधिकारी होता है जब उसकी अनुभूति परम सत्य का साक्षात्कार कर ले और दर्शन की चरम सिद्धि तब होती है जब वह आत्मचिन्तन को आत्मानुभूति के रूप में हृदयंगम कर ले । इसी कारण प्रत्येक महान् साहित्यकार दार्शनिक होता है और प्रत्येक महान् दार्शनिक साहित्यकार । दुनिया के प्रत्येक महान् दार्शनिकों की कृतियाँ साहित्य तत्त्व से अलग नहीं है और न प्रत्येक सिद्धस्त साहित्यकार की कृतियाँ दर्शनविहीन । ___ अत: 'मूकमाटी' अपने आप में, काव्य-परम्परा से अलग हटकर एक ऐसा महाकाव्य है जिसके सन्दर्भ में सम्पूर्ण जैन वाङ्मय के सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं दार्शनिक ज्ञान-विकास का संश्लिष्ट दस्तावेज़ प्रस्तुत हुआ है । क्योंकि इस महाकाव्य के रचयिता आचार्य विद्यासागरजी स्वयं में साधक, चिन्तक एवं आधुनिक परिवेश के भोक्ता कवि हैं और जिन्होंने संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के माध्यम से विभिन्न दृष्टिभंगियों से साक्षात्कार किया है । वे विस्तृत फलक पर दैशिक समस्त सम-सामयिक गतिविधियों के साथ उनके आन्तरिक समस्याओं की नब्ज़ पहचानने में समर्थ दीख पड़ते हैं और उनके सम्यक् समाधान के दिशा-निर्देश देने में आकुल सक्षम । 'सन्त-साधना के जीवन्त प्रतिरूप' एवं 'तपस्या से अर्जित जीवन-दर्शन को अनुभूति में रचा-पचाकर सबके हृदय में गुंजरित कर देना' उनका काम्य है और मंगल घट के प्रतीक के माध्यम से भविष्य को सार्थकता की त्वरा देकर प्रतिष्ठित करना उनका लक्ष्य।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy