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'मूकमाटी' : काव्य - जगत् में एक नया कीर्तिमान्
पण्डित प्रकाश 'हितैषी' शास्त्री
कर्नाटक प्रान्त में जन्मे विद्याधर, जो आज आचार्य विद्यासागर हैं, जैन समाज में बहुचर्चित विद्वान् साधु हैं । इस पर कौन विश्वास कर सकता है कि कर्नाटकवासी हिन्दी, संस्कृत और प्राकृत आदि भाषाओं पर इस प्रकार से अधिकार कर लेगा कि तत् तत् भाषाओं के विद्वानों से भी बहुत आगे निकल जाएगा। माटी जैसी अकिंचन, निर्जीव वस्तु के माध्यम से आपने धर्म, दर्शन, आचार, विचार के सन्दर्भों को मुक्त छन्द की आधुनिक शैली की कविता में निबद्ध करके काव्य-जगत् में एक नया कीर्तिमान् स्थापित किया है । सुयोग्य शिल्पी कुम्भकार मिट्टी की योग्यता और भाव्य शक्ति देख कर अपने कौशल से उसे स्वच्छ, साफ़ कर उसका सर्वोपयोगी जीवन का निर्माण कर देता है, जैसे कि शिष्य की योग्यता के अनुसार गुरु उसके निर्माण में सहायक बन जाता है ।
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यह एक प्रतीकात्मक कृति है जो महाकाव्य की श्रेणी में आती है । इसमें मिट्टी मंगल कलश का रूप धारण करके मंगल का प्रतीक बन जाती है, जिसका उपयोग मंगल कार्यों में प्रमुखता से किया जाता है। मंगल घट बनने के पूर्व उसे जिन-जिन कठिन परीषहों और परीक्षाओं से गुज़रना पड़ता है, वे दृश्य हमारी साधना की ओर इंगित करते हैं । आत्म-साधना में भी दु:सह परीक्षाओं में उत्तीर्ण होना पड़ता है। उस माटी को पानी की अतिवृष्टि बहा ले जाती है तथा अनावृष्टि माटी को रूक्ष और शुष्क बनाकर उसका अस्तित्व समाप्त करना चाहती है, किन्तु ये प्रतिकूलताएँ भी माटी का अस्तित्व समाप्त न कर सकीं। जैसे साधना के पथ में अनेक प्रतिकूलताएँ आती हैं किन्तु वे उसे बाधाएँ उत्पन्न नहीं कर सकतीं बल्कि वे बाधाएँ उसे साधक ही सिद्ध हो जाती हैं।
वह मंगल कलश इन सब बाधाओं को पार कर सुहागनों के शिखर पर सबसे अग्रपंक्ति में पुष्प माला और स्वस्तिक व श्रीफल से सुशोभित, शृंगारित होकर मंगल कार्यों में मंगलमय बन गया है, जैसे कि साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर स्वयं मंगलमय और मंगलकारी बन जाता है।
आचार्यश्री की सूझबूझ, अलंकारों की साज-सज्जा, नाटकीय दृश्य, रोचक और लुभावने संवाद अध्यात्म के रहस्यों को उद्घाटित करते देखे जाते हैं । इसमें द्रव्यशक्ति का ज्ञान कराकर उसमें सुप्त सम्भावनाओं को जागृत करने का प्रयास किया गया है । जैसे रत्न को शाण पर चढ़ाकर उसको अपनी निर्दोष स्थिति में लाकर बहुमूल्य और ज्योतिर्मय बना दिया जाता है, वैसे ही मंगल कलश को अवे की अग्नि / भट्ठी में डालकर परिपक्व अवस्था में लाकर कुम्भकार उसको महिमावन्त बना देता है ।
कविता का मुख्य उद्देश्य कवि और पाठक को आनन्दानुभूति कराना है । इसलिए कविता का मूलगुण उसकी भावात्मक प्रकृति है । अत: उसमें निहित उपदेश मन और बुद्धि को आन्दोलित करते हैं। भले ही कविता लोकहित की प्रेरणा से लिखी हो, किन्तु उसमें भी रसों को विशेष महत्त्व दिया जाता है जो काव्य में सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहे हैं। कविता की रचना सामान्यतः या तो प्रबन्ध काव्य के रूप में की जा सकती है या मुक्तक कविता के रूप में । प्रबन्ध काव्य में किसी कथा विशेष का आश्रय लिया जाता है। सम्पूर्ण मानव जीवन को दृष्टि में रखकर लिखे जाने वाले प्रबन्ध काव्य को महाकाव्य कहते हैं और जीवन की किसी एक पक्ष को छूने वाली घटना का वर्णन जिसमें किया जाता है उसे खण्ड काव्य कहते हैं ।
सम्पूर्ण मानव-जीवन को लक्ष्य में रखकर लिखित यह रचना महाकाव्य की श्रेणी में आती है, अत: इसको महाकाव्य के रूप में स्वीकार किया गया है। विषय और शैली दोनों दृष्टि से कविताओं के गुण इसमें प्राप्त होते हैं । भाषा की सरलता और प्रवाहपूर्ण गति इसकी उल्लेखनीय विशेषता है । कवि की चिन्तनपूर्ण अलौकिक प्रतिभा के दर्शन इसमें पद-पद पर होते हैं। साहित्यकारों की दृष्टि में यह कृति सर्वांग सुन्दर होगी।
[सम्पादक-‘सन्मति सन्देश' (मासिक), नई दिल्ली, जून, १९९०]
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