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'मूकमाटी' : सन्त-कवि का मुखर काव्य
प्रो. (डॉ.) देवव्रत जोशी भारतीय ज्ञानपीठ विलुप्त, अनुपलब्ध तथा लोकहितकारी मौलिक साहित्य के प्रकाशन की संस्था है । इधर इसी संस्था ने एक महाकाव्य 'मूकमाटी' प्रकाशित किया है । विस्मय और कुतूहल से पढ़ी, आचार्य विद्यासागर द्वारा रचित यह रचना।
विद्यासागरजी जैन मुनि हैं और उनका तत्त्व दर्शन और चिन्तन लगभग ५०० पृष्ठों के इस काव्य ग्रन्थ में बिखरा मिलता है। छन्दबद्धता कहीं नहीं, किन्तु लय, गम्भीर चिन्तन और दर्शन की गहरी छाप आश्वस्त करती है कि कविता के लिए न जनवादी होना आवश्यक है, न मुनि होना बाधक । सार्वभौम और सार्वकालिक सत्य मानव मूल्यों में ही समाहित है और 'मूकमाटी' में यह सब कुछ सहज प्राप्य है :
"ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करना/सब के वश की बात नहीं,/और वह भी..
स्त्री-पर्याय में-/अनहोनी-सी घटना !" (पृ.२) यह महाकाव्य चार खण्डों में विभक्त है- (१) संकर नहीं : वर्ण-लाभ, (२) शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं, (३) पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन एवं (४) अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख ।
काव्य में सम-सामयिकता है । ऐतिहासिक परिदृश्य हैं, जो वर्तमान से सन्दर्भित हैं। कथा है, किन्तु कथा को अतिक्रमित करती हुई । वस्तुत: श्री अरविन्द की 'सावित्री' और प्रसाद की 'कामायनी' के बाद इतना सुघड़, शिल्पवैशिष्ट्यपूर्ण काव्य सम्भवत: भारतीय साहित्य में दृष्टिगत नहीं हुआ। कहीं-कहीं सन्देश हैं, जो कविता को क्षति नहीं पहुँचाते :
"जीवन को मत रण बनाओ/प्रकृति माँ का व्रण सुखाओ!" (पृ. १४९) और भी उदाहरण द्रष्टव्य हैं :
"निगूढ़ निष्ठा से निकली/निशिगन्धा की निरी महक-सी बाहरी-भीतरी वातावरण को/सुरभित करती जो
वही निष्ठा की फलवती/प्रतिष्ठा प्राणप्रतिष्ठा कहलाती है।” (पृ. १२०) दया जैन-दर्शन का महत्त्वपूर्ण तथ्य-सत्य है, किन्तु दया जितना ओछा शब्द भी और कोई नहीं। मानव भला मानव पर दया दिखा सकता है ? प्रखर कवि दया को इस तरह परिभाषित करता है :
"दया का कथन निरा है/और/दया का वतन निरा है ।" (पृ. ७२) आज के परिप्रेक्ष्य में कवि-कथन कितना सटीक है :
___ “कहाँ तक कहें अब !/धर्म का झण्डा भी/डण्डा बन जाता है
शास्त्र शस्त्र बन जाता है/अवसर पाकर।" (पृ. ७३) अपनी पृथक् भंगिमा और तेवर के कारण यह काव्य पृथक् स्थान रखता है । यही इसकी विशेषता है । ['नई दुनिया' (दैनिक), इन्दौर-मध्यप्रदेश, १६ जनवरी, १९९०]