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________________ 172 :: मूकमाटी-मीमांसा मानिंद हम अपने शुद्ध आलोक से देख सकते हैं मूकमाटी की विस्तृत लीला को । इस आवर्तमान् जगत् में हम धर्म सारिणियों और दार्शनिक तथ्यों को न समझकर धर्म के बाहरी अलंकरण को ही अपनी रक्षा का साधन मानने लगते हैं । धर्म संगठन को सत्ता का रूप देते हैं और धर्म संगठनों को घृणास्पद कट्टरता का रूप देकर सच्चे धर्म से दूर होते जाते हैं, जबकि धर्म का सच्चा रूप निज स्वभाव को अनुभव करने की ऐकान्तिक प्रक्रिया है । धर्म एकान्त में ही घटित होता है । अपने भीतर के सच्चे धर्म की पहचान आन्तरिक महामौन में ही सृजित होती है, भीड़ में नहीं । इसीलिए जिन धर्म सामयिक और स्वाध्याय की अनिवार्यता पर अधिक बल देता है। 1 हम संसार की मूक माया में ऐसे आबद्ध हैं कि आत्मधर्म के इस अन्तः साक्ष्य को उभरने ही नहीं देते, अतः धर्म की यात्रा बड़ी कठिन लगती है। इस कठिन धर्म को समझने की कोशिश तो शुरू करें और अपनी समूची जीवन शैली में एकान्त चर्या के लिए स्थान दें, तब ही हम भीतर से अपनी पहचान को शुरू कर सकते हैं। सच तो यह है कि धर्म साधनाएँ बाहर का ज्ञान दे सकती हैं परन्तु शुद्ध-चेतन का बोध महामौन की यात्रा से ही सम्भव है। शुद्ध चेतन को उपलब्ध होने के साक्षी तो महावीर, बुद्ध, नानक, कबीर जैसे शलाका पुरुष हैं, जो आत्मप्रकाश से दीप्त हैं और निरन्तर प्रकाश विस्तार में लीन हैं । 'मूकमाटी' काव्य में सन्त के प्रवचन कठिन- योग साधना को संकेतित करते हैं । 'पुण्य का पालन : पाप प्रक्षालन' करुणा का महाभाव और शान्त रस का विस्तार - सभी कुछ इस महाकाव्य में है । सन्तजन - संसार की मूकमाटी के महामौन के साक्षी हैं और निज स्वरूप को पहचानने की आन्तरिक यात्रा को इंगित करते हैं। माटी की मूक वेदना से स्वर्ण कलश के आतंक तक न जाने कितने विषय, अनेक बिम्ब और स्वयं को उपलब्ध होने की कोशिश में हजार काव्य पद में आत्म स्वभाव तक पहुँचने की अभीप्सा इस महाकाव्य में मौजूद है। जागतिक व्यापार का ऐसा विशद और सहजता पूर्ण चित्रण जैन काव्य परम्परा में है । जो भी इसे पढ़ता है, वह अपने चेतन बोध और स्मृति से अनेक रूपों में ग्रहण करता है । 1 हमारे आलोचक मन में विवेक के दो आयाम होते हैं- एक बाह्य रूप में आलोचना करना और दूसरा शब्द के पार शब्द के आभ्यंतरिक सच को समझकर उसे व्यक्त करना । मैं बहुत गहरे समझती हूँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी माटी गन्ध में समाई चेतना को । इस काव्य के माध्यम से मैंने सृष्टि के विकास और अनन्त विस्तार को समझा । मिट्टी जो हमारी माँ है, महतारी है, अम्बा है, उसमें कोंपलों के नित नवीन रंग हैं, सृजन की असीम शक्ति है और उस सृजन पर काव्य-सृजन करना बड़े ही सामर्थ्य का काम है। माटी भीतरी सच और संसार के सच के अन्तर को उभार देती है और यही लौकिक संज्ञान की पहली सीढ़ी है । यह काव्य आत्मखोजी, जिज्ञासु चेतना के मन में माटी के मौन से निष्पादित काव्य है, जिसका शिल्प एक संवाद शैली में सहज सरल शिल्प है। मैंने जानबूझ कर महाकाव्य की सैद्धान्तिक समीक्षा को अलक्षित छोड़ दिया है । मेरा लक्ष्य रहा है इस चराचर जगत् में शरीर (पुद्गल), जीव-अजीव से जुड़े संसार में माटी के , हर बम्ब के मर्म को विश्लेषित करना । मौन माटी के पार शुद्ध चेतन की साधना करने वाले आचार्यश्री के द्वारा सिद्धत्व को पहचाने की कोशिश इस काव्य में व्यक्त हुई है । Pakiavoje णमो अ 0 000.0 पृष्ठ 990 झिलमिल झिल-मिल ---.. बहुत कम सुनने को मिला यह ।
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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