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मूकमाटी-मीमांसा :: 171 इसका तीसरा भाव क्या है-/...सब विभावों-विकारों की जड़
'मैं' यानी अहं को/दो गला-कर दो समाप्त।" (पृ. १७५) मैं को गला देने या समाप्त कर देने से ही संसार की मोह-माया भी कम होती है। मोह की निर्जरा के लिए अहंकार रहित होना ही शुद्ध चेतन की प्राप्ति या पहल का प्राथमिक बिन्दु है ।
'मूकमाटी' महाकाव्य में करुणा रस का बार-बार प्रयोग आया है। मेरे विचार से करुणा रस नहीं है, जिस तरह अहिंसा का भाव रस नहीं है, एक महाभाव है । भाव तो जिस आत्मा में जाग जाए, वह महाकल्याण ही करता है। महावीर की आत्मा में वह जागा और विश्वकल्याण की देशना से उपकृत हो गया संसार । करुणा महाभाव बुद्ध की आत्मा में जागा और सारी दुनिया कृतकृत्य हो गई। करोड़ों लोग उनकी वाणी से उबुद्ध हुए।
__नव रसों के साथ वात्सल्य को जरूर आजकल के विद्वानों ने रस मान लिया है । यद्यपि आचार्यश्री ने मोह के कारण ‘त्राण' शब्द का प्रयोग किया है । करुणा जीवन का प्राण समीर-धर्मी, वात्सल्य जीवन का त्राण नीर-धर्मी है जबकि करुणा का स्थान वात्सल्य से करोड़ योजन ऊँचा है । करुणा उसी में जागती है जो शुद्ध चेतना को उपलब्ध हुए हों, साथ ही अहंकार अणुमात्र भी उनमें न हो, सारे विश्वकल्याण के लिए ही अन्तिम जन्म धारण किया हो, यथा :
"करुणा-रस जीवन का प्राण है/घम-घम समीर-धर्मी है । वात्सल्य जीवन का त्राण है/धवलिम नीर-धर्मी है । किन्तु, यह/द्वैत जगत् की बात हुई,
शान्त-रस जीवन का गान है/मधुरिम क्षीर-धर्मी है ।" (पृ. १५९) वस्तुत: करुणा हमें रस की तरह लगता है, होता नहीं। करुणा शब्द का जो उपयोग हम व्यवहार में करते हैं वह प्रकारान्तर से दया ही होती है । दया की सीमा होती है, करुणा असीम होती है।
हम दान, दया आदि सबकी प्रतिस्पर्धा करते हैं, क्योंकि इस दान, दया की सीमा होती है । काव्य में इस प्रतिस्पर्धा को प्रतिबिम्बित किया है ‘घट' और स्वर्ण कलश की तुलना से । घट के प्रति दया का भाव ही स्वर्ण कलश में दान का अभिमान पैदा करता है, स्वर्ण का आतंक पैदा होता है, जो त्राहि-त्राहि करता है । स्वर्णकलश के आकर्षण और आतंक से हम अपनी पहचान और शुद्ध चेतना के अस्तित्व को भूल जाते हैं। मुनि, आचार्य, सन्त इस पहचान और शुद्धचेतना के अस्तित्व की ओर लौटने का उपदेश देते हैं । सन्तशिरोमणि विद्यासागरजी के प्रवचन हैं :
"क्षेत्र की नहीं,/आचरण की दृष्टि से/मैं जहाँ पर हूँ
वहाँ आकर देखो मुझे,/तुम्हें होगी मेरी/सही-सही पहचान ।” (पृ. ४८७) आचार्य ही वह पहचान देते हैं, लेकिन वह तभी सम्भव है जब हम सांसारिक उपादान को छोड़कर अपने शुद्ध स्वरूप को जानें, उस पर सम्यक् श्रद्धा रखें । जब चेतन मन को जानने की सच्ची जिज्ञासा जागती है तब ऊपरी ज्ञान थोथा लगने लगता है। वह मुनि, आचार्य जैसी आचरण की शुद्धता से उपजता है। तत्त्वत: थोथे ज्ञान को तजने की प्रक्रिया जिस क्षण से शुरू होती है, बस उसी क्षण से हम भीतर के शुद्ध अध्यात्म की देहरी में पहला कदम रखते हैं। शुद्ध चेतन के बोध के प्रयास में भाषा की बाधा मालूम पड़ती है। निज स्वरूप के बोध में मिथ्या भाषा की निस्सारता को हम जान लें तो फिर जाति, धर्म, पुराण, कथा आदि से दूर करणानुयोग-चरणानुयोग में हमारी चेतना रमने लगती है। इस प्रक्रिया में हमारे कर्मों की आवृतियाँ पीछे छूटने लगती हैं, हमारी नाम-रूपमय पहचान हट जाती है और एक द्रष्टा के