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170 :: मूकमाटी-मीमांसा
माटी के साथ जो घटित होता है, उसे पढ़कर लगा हम इस जगत् में शुद्ध चेतन सत्ता के रूप में हैं और हममें अनगिनत सम्भावनाएँ होती हैं किन्तु हमारे साथ ढेर-से कंकर, धूल, काई, कल्मष लिपटा हुआ मन होता है । फलतः आत्मा का शुद्ध अस्तित्व कर्म जाल से आवृत होता है। धीरे-धीरे घर की विशेष संस्कृति के मोह में अपने वास्तविक रूप को ढंक लेते हैं और हम भूल जाते हैं कि हमारे भीतर मनीषी, स्वयम्भू होने की ताक़त भी है।
___ माटी के जन्म, उत्पाद से लेकर व्यय और पुन: अस्तित्व यानी ध्रौव्य तक की यात्रा में अचेतन माटी कितनी पर्याय बदलती है, एक ऐसा ही शब्द-बिम्ब इस तरह है :
“ “उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्"/ सन्तों से यह सूत्र मिला है इसमें अनन्त की अस्तिमा/सिमट-सी गई है। यह वह दर्पण है,/जिसमें/भूत, भावित और सम्भावित
सब कुछ झिलमिला रहा है ।" (पृ. १८४) इस माटी की पर्याय परिवर्तन में यम, नियम, प्राणायाम जैसी योग-साधना पर भी आचार्यश्री केन्द्रित होते हैं। शुद्ध होने की प्रक्रिया योग है। इस प्रक्रिया में दोष को तजना पड़ता है। बोधपूर्ण शोध की प्रक्रिया से अन्तर्मन की योगप्रक्रिया को. प्राणायाम को आचार्यश्री कुम्भ के माध्यम से स्पष्ट कर देते हैं, यथा :
"पूरी शक्ति लगाकर नाक से/पूरक आयाम के माध्यम ले
उदर में धूम को पूर कर/कुम्भ ने कुम्भक प्राणायाम किया।" (पृ. २७९) माटी से निर्मित 'घट-निर्माण' व्यक्तित्व-निर्माण की प्रक्रिया ही तो है-एक ऐसी प्रक्रिया जो हमें धर्म, विचार, भाषा, शिक्षा, संस्कृति, योग आदि में दीक्षित करती है। अपने अन्न-जल के माध्यम से हम भी 'माटी' (शरीर) के पूरे संघर्ष में अपनी एक धार्मिक पहचान निर्मित करते हैं, परिस्थितिजन्य कर्मों की आँच में तप कर, पक कर अपनी अस्मिता बनाते हैं। हमारे दृश्य जगत् में मूकमाटी की मुश्किल है कुम्भ और कुम्भकार का द्वैत । माटी और शिल्पी के द्वैत के इसमें अनेक बिम्ब हैं :
"शिल्पी की ऐसी मति परिणति में/परिवर्तन - गति वांछित है।" (पृ.१०४) इस द्वैत में संसार का चक्र चलता चला जा रहा है । इसीलिए काव्यकार लिखते हैं :
"काल स्वयं चक्र नहीं है/संसार-चक्र का चालक होता है वह ।” (पृ. १६१) इस चक्र में चार गतियाँ, चौरासी लाख योनियाँ हैं । वस्तुत: काल-चक्र थोड़े ही है, वो तो हम जनम-मरण की निरन्तर गति से चक्रमाण हैं, इसीलिए संसार का चक्र है । हमारे भीतर का मन ही तो काल को जानता है, वरना काल तो नित्य वर्तमान है। उसकी अखण्ड सत्ता है । लेकिन संसार में भ्रमण करते हुए हम काल को सीमित कर लेते हैं। हम जीवधारी दुविधा में ही विविधा रच लेते हैं। अपने 'मैं' को दुविधा के बीच दो-गला' बना लेते हैं। एक शब्द बिम्ब है :
""मैं दो गला”...मैं द्विभाषी हूँ/भीतर से कुछ बोलता हूँ बाहर से कुछ और"/...मैं दोगला/छली, धूर्त, मायावी हूँ अज्ञान-मान के कारण ही/इस छद्म को छुपाता आया हूँ/...और