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'मूकमाटी' महाकाव्य : शुद्ध चैतन्य की खोज
डॉ. राजमति दिवाकर 'मूकमाटी' काव्य को पढ़ते हुए लगा कि ऋषिमना आचार्य श्री विद्यासागरजी की चेतना निरन्तर सिद्ध होने के उपक्रम में माटी के मौन को व्याख्यायित करने का प्रयास करती है (माटी का मौन यानी पदार्थ-जगत् का मौन विस्तार); इसलिए यह कुछ-कुछ वैसा ही प्रयास है जो सदियों पूर्व से लेकर अब तक आचार्यगणों ने 'चेतना और पदार्थ' के द्वन्द्व को समझने के लिए अनेक बार किया। इसी द्वन्द्व में द्वैत (सगुण), अद्वैत (निर्गुण), विशिष्टाद्वैत न जाने कितने मत-मतान्तर चलते चले आ रहे हैं लेकिन संसार के द्वैत को समझने का यह प्रयास अपने ढंग का विशिष्ट प्रयोग है।
महाकाव्य मैंने और भी पढ़े हैं लेकिन यह उस तरह का शास्त्रीय रूप-गुण वाला महाकाव्य नहीं है, जैसा संस्कृत शैली में प्रचलित है। उसमें शास्त्रीय ढंग की महाकाव्य की लम्बी-चौड़ी सैद्धान्तिक शर्ते हैं, जिसमें सर्गबद्धता हो, वीरता हो, धीर ललित, धीरोद्धत नायक हो, नायक में ओज, माधुर्य और प्रसाद गुण हों, नव रसों का परिपाक हो इत्यादि शतक भरी शर्ते। जबकि 'मूकमाटी' महाकाव्य में नायक नहीं, नायिका है, वह भी 'मूक रहने वाली माटी'। वैसे हिन्दी साहित्य में ऐसे उपन्यास ज़रूर लिखे गए हैं जिसमें नायक कोई व्यक्ति विशेष नहीं होता, जैसे-हजारी प्रसाद द्विवेदी का उपन्यास 'चारुचन्द्र लेख', जिसमें कथा सिर्फ़ बुनी गई है लेकिन नायक है काल । मध्यकाल के समय को नायक बनाकर कथा शिल्प रचा गया। इसी तरह 'मूकमाटी' में नायिका है 'माटी' - जो धरती है, जो पृथ्वी है, जो ऋतु है, जो साम है, जो प्रणव रूपा है, जो ऋचा है, जो उद्गीथ है । उसे ही नायिका बनाया और यह अपने आप में सृजन का महत्तर लक्ष्य है । माटी की वेदना के माध्यम से संसार की वेदना को समझकर उस पर महाकाव्य की शिल्प-रचना अपने में निराली कोशिश ही नहीं, अपितु अपने भीतर विराजी शुद्ध आत्मचेतना का सृजन के माध्यम से आत्मसाक्षात्कार ही है। इसीलिए मेरा लक्ष्य है काव्यकार के बृहत्तर सन्दर्भो को समझकर शुद्ध चेतन अस्तित्व के सन्दर्भो में दार्शनिक पक्ष को उजागर करना। मैं महाकाव्य के बाह्य रूप में व्याप्त शब्द, शिल्प शब्द श्लेष या शब्दों की पच्चीकारी में उलझना नहीं चाहती, बल्कि 'मूकमाटी' काव्य में शब्द चित्रों-बिम्बों के माध्यम से शब्दों के पार' अवस्थित नि:संग चेतना के आत्मविचारों को समझने की कोशिश करना चाहती हूँ। वस्तुत: अपनी स्वाभाविक ऊर्जा से काव्यकार ने, जो चेतन-अवचेतन में जमा स्मृतियों और दृश्य जगत् से परिकल्पित विचारों को अनेक आयाम में अर्थ देकर काव्य-रचना की है, उसे मैं काव्य के शब्दों चित्रों में अन्तर्घलित सूक्ष्म तत्त्व दर्शन को अपनी स्थूल बुद्धि से व्याख्यायित करने/पकड़ने की कोशिश करना चाहती हूँ। मैं सोचती हूँ कि माटी को मूक नाट्यशाला का साक्षी बनाकर एक साधक, एक मुनि, एक आचार्यमना आत्मसत्य की चिरन्तनता का कितना विस्तृत आयाम तलाशते हैं।
काव्य का आरम्भ प्रकृति के सुकोमल विस्तार से होता है । वस्तुत: कतिपय पुराणों में महामाया तत्त्व का विस्तार माया है और माया की बेटी प्रकृति है। कवि प्रकृति के मधुर सौन्दर्य बिम्ब को उभारते हैं :
0 "प्राची के अधरों पर/मन्द मधुरिम मुस्कान है।" (पृ. १) 0 “सत्ता शाश्वत होती है/सत्ता भास्वत होती है बेटा!" (पृ. ७) 0 "आस्था के बिना रास्ता नहीं ।” (पृ. १०) 0 "गति या प्रगति के अभाव में/आशा के पद ठण्डे पड़ते हैं।" (पृ. १३)
“संघर्षमय जीवन का/उपसंहार/नियमरूप से/हर्षमय होता है, धन्य!" (पृ.१४)
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