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'मूकमाटी' : मानव-मूल्य परखने का महाकाव्य
डॉ. माधव राव रेगुलपाटी 'मूकमाटी' महान् सन्त आचार्य विद्यासागर के आत्मा का संगीत है । इस काव्य में उनकी पवित्र वाणी सहित आध्यात्मिक प्रवचन मुखरित होता है । इस काव्य में मुक्त छन्द का प्रवाह और काव्याभिव्यक्ति की अन्तरंग लय दोनों गुण विद्यमान हैं।
_ 'मूकमाटी' का प्रथम खण्ड है- 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ ।' इस खण्ड का आरम्भ धृति-धारणी धरती और माटी के वार्तालाप से प्रकम्पित और प्रस्फुटित भीगे भावों से होता है।
धृति-धारणी-धरती श्रमण संस्कृति का प्रतीक है और माटी आस्तिक का । आस्तिक में आध्यामिकता का बीज-वपन संस्कति के अनेक आयामों के द्वारा होता है। धति-धारणी-धरती जिस प्रकार अलग-अलग काल खण्डों में अलग-अलग रूपों में अनन्त काल से जिस प्रकार स्थित है, उसी प्रकार साधुत्व से सम्पन्न संस्कृति भी। आस्तिक इस संस्कृति से लाभान्वित होता है । आरम्भिक दशा से लेकर शिखरस्थ दशा तक पहुँचने के लिए आस्तिक बार-बार संस्कृति के मार्ग पर आरोहित होता है। धरती स्वयं माटी से कहती है अर्थात् आस्तिक को संस्कृति का उपदेश मिलता है :
“सत्ता शाश्वत होती है/सत्ता भास्वत होती है बेटा ! रहस्य में पड़ी इस गन्ध का/अनुपान करना होगा।
आस्था की नासा से सर्वप्रथम/समझी बात'!" (पृ. ७-८) जीवन-धारा की प्रतीक संस्कृति की यह आरम्भिक दशा है । जिस प्रकार बादल की धारा धरा-धूल में आ मिलती है तो कलुषित हो जाती है, उसी प्रकार जीवन भी सांसारिक जीवन से कलुषित होकर दलदल में फँस जाता है । वही धारा नीम की जड़ों में जा मिलती है तो कटुता में ढलती है । सागर में गिरती है तो लवणाकर में बदल जाती है । विषधर के मुख में गिरती है तो विष हाला बनकर रह जाती है । सागरीय शुक्तिका में गिरती है तो स्वाति की मुक्तिका बनकर झिलमिलाती है :
"जैसी संगति मिलती है/वैसी मति होती है मति जैसी, अग्रिम गति/मिलती जाती"मिलती जाती
और यही हुआ है/युगों-युगों से/भवों-भवों से !" (पृ. ८) जैसी संगति होती है वैसी मति होती है । जैसी मति होती है वैसी गति होती है । युगों-युगों से और भवों-भवों से यही हुआ। जिस प्रकार की संस्कृति की संगति में मनुष्य रहता है उसी प्रकार उसकी मति होती है । जिस प्रकार की मति होती है उसके जीवन की गति भी वैसी होती है।
संस्कृति पर आस्था जम जाती है । वही आस्था साधना का रास्ता सुगम करती है । इसलिए मनुष्य के लिए आस्था जमा लेना पहला सोपान है तो साधना करना दूसरा सोपान है । साधना विहीन व्यक्ति विजय-शिखर पर नहीं पहुँच सकता :
"...जीवन का/आस्था से वास्ता होने पर रास्ता स्वयं शास्ता होकर/सम्बोधित करता साधक को ।