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162 :: मूकमाटी-मीमांसा
योग्यता की ज़रूरत होती है।
सारांशतः, 'मूकमाटी' कवि विद्यासागर रचित एक उच्चकोटि का काव्य और 'वि-लक्षण' महाकाव्य है । इसमें न तो कवि-प्रतिभा के प्रति किसी तरह के सन्देह के लिए स्थान है और न ही महिमामण्डित 'महाकाव्य' के होने में। इन पर विस्तार से विचार करने की कोई विशेष ज़रूरत नहीं है, क्योंकि यह महाकाव्य ही नहीं जैन मत का अध्यात्म भी है। इन दोनों का संयोग सन्त कवियों में ही सम्भव है। 'माटी' को छूकर ‘सोना' बना देने वाले कवि के सन्देश को इस समीक्षक ने जिस रूप में समझा है, उसका सार-संक्षेप यह है कि मानव-शरीर का संचालक मन और उसका मालिक अन्तरमन या आत्मन है । स्व, अहम्, स्वत्व आदि एक ही के नाम हैं। 'स्व' को विराट् ‘पर' स्तर पर विकसित करने वाला, परिष्कृत करने वाला महामानव अपनी सघन आत्मीयता और सहृदयता का पग-पग पर परिचय देता है। विकसित एवं परिष्कृत आत्मचेतना ही ‘बोध और मोक्ष' है।
__ अपने व्यक्तित्व को सीमित रखने का नाम 'स्वार्थ' है । इसे विकसित करने का नाम ‘परमार्थ' है । महान् दार्शनिक प्लेटो के अनुसार : "जब हमारा परिष्कृत 'स्व' से साक्षात्कार होता है, तब हमें अपने सही स्वरूप का, अपने बहुआयामी विस्तार का ज्ञान होता है।" इसी उच्च स्थिति में पहुँचने पर आत्मा का परमात्म तत्त्व में विलय होता है। तब किसी अवलम्बन की आवश्यकता नहीं रहती। मानव के चेतनशील अन्तर में बहुत सी भाव-संवेदनाएँ विद्यमान हैं। ये उच्च-स्तरीय परतों वाली हैं। यदि इन्हें जाग्रत किया जा सके तो परम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। कवि की मान्यता है :
“रसनेन्द्रिय के वशीभूत हुआ व्यक्ति/कभी भी किसी भी वस्तु के
सही स्वाद से परिचित नहीं हो सकता।” (पृ.२८१) मानव-जीवन की सार्थकता सदाचारी, संयमी, परिश्रमी, उदार और सेवाभावी बनने में है। विचारों, आहारों और व्यवहारों की अनुपयुक्तता मानव को पतन, पराभव एवं अवसाद की ओर ले जाती है । भाव-संवेदनाओं का क्षेत्र बुद्धि से ऊपर है । व्यक्ति की क्रूरता, हिंसात्मकशक्ति, अहंवादिता ही आधुनिक जीवन की आपदाओं की जननी है । विज्ञान और अध्यात्म के बीच टकराव नहीं है । असली लड़ाई भौतिक सम्पदा को लेकर स-बल एवं नि-बल के बीच 'स्व' और 'पर' की वजह से है।
“परतन्त्र जीवन की आधार-शिला हो तुम/...और
अशान्ति के अन्तहीन सिलसिला!" (पृ.३६६) (तुम यानी 'स्व' और 'पर' - समी.) जीवन जब सहज-सरल गति से चलता रहता है, तब उसे प्रगति कहते हैं । किन्तु माया, मोह, अज्ञान, अन्धकार से ग्रस्त जीवन की गति थम जाती है, अ-गति की हालत हो जाती है, इसे ही पाप या पतन कहते हैं।
"सुकृत की सुषमा-सुरभि को/सूंघना नहीं चाहते भूलकर भी, विषयों के रसिक बने हैं/कषाय-कृषि के कृषक बने हैं जल-धर नाम इनका सार्थक है।” (पृ. २२९)
पृ.१
SHAR
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परसरोपयो जीवानामा
चिरंजषा
जीवन चिरंजीवना! संजीवन ।।।