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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 161 "लेखनी के धनी लेखक से/और/प्रवचन-कला-कुशल से भी कई गुना अधिक/साहित्यिक रस को/आत्मसात् करता है श्रद्धा से अभिभूत श्रोता वह।” (पृ. ११२-११३) साहित्य ही क्यों, जीवन और जगत् का ऐसा कोई सन्दर्भ नहीं बचा है जिस पर कवि ने अपनी बेबाक लेखनी चला कर बहुमूल्य 'सूक्तियाँ' न प्रदान की हों । इसे कहावतों का कोश कहना भी अनुचित न होगा। 'मूकमाटी' की कविताओं में लय, प्रवाह, छन्द, शब्द और ध्वनि संयोजना सहज, स्वाभाविक एवं अन्तः की गहराई से निकली हैं। इसीलिए इस काव्य में सभी स्तरों पर अति सहज भाव से साधारणीकरण होता चलता है । तुकान्तता और आवृत्ति की प्रवृत्ति इस काव्य में सर्वत्र दिखाई पड़ती है। कवि के आकर्षण का मुख्य केन्द्र शब्द है । शब्दबोध का साधक है । शब्द के बिना बोध सम्भव नहीं होता : “बोध के सिंचन बिना/शब्दों के पौधे ये कभी लहलहाते नहीं, यह भी सत्य है कि/शब्दों के पौधों पर/सुगन्ध मकरन्द-भरे बोध के फूल कभी महकते नहीं।" (पृ. १०६-१०७) ध्यान देने की बात यह है कि व्यवहार जगत् का कण-कण प्रतीकों से भरा है । शब्द स्वयं में भाव-संवेदनाओं के प्रतीक हैं। प्रतीकों को हटाने का मतलब है-व्यवहार-शून्यता । व्याकरण शास्त्र, शब्द शास्त्र, पद-वाक्य विज्ञानादि भाषा के सारे अवयव एवं विज्ञान जो हमें किसी तथ्य का बोध कराते हैं, सब प्रतीक ही तो हैं। 'मूकमाटी' में कलात्मक एवं नूतन अर्थों से सजाए गए शब्द अनेकानेक भावनाओं को बरबस पिघला कर भाव-बिन्दुओं के रूप में स्वत: स्थिर हो उठे हैं । शब्द बोध है और बोध ही शोध है : "बोध का फूल जब/ढलता-बदलता, जिसमें वह पक्व फल ही तो/शोध कहलाता है ।” (पृ. १०७) 'मूकमाटी' सर्वतोभावेन प्रतिभा से परिपूरित महाकाव्य है । मानव में जब इतनी प्रखरता आ जाए कि वह विपरीत परिस्थितियों में भी रुके नहीं और विपरीतता को अपने अनुकूल बना ले तो यही उसकी प्रतिभा' कहलाती है। यह काव्य साक्षी है कि कवि ने समय और समाज के प्रवाह को अपनी पराक्रमजन्य प्रतिभा से जगाया है और जनजन के मन में श्रमण-संस्कृति की प्राण-चेतना फूंकी है। इसमें कवि प्रतिभा की सबसे बड़ी विशेषता दया, करुणा, अनासक्ति और विनम्रता है । दूसरी विशेषता कष्ट एवं कठिनाइयों से भरा परमार्थ पारायण सन्त जीवन जीना है। प्रतिभावानों का इतिहास बताता है कि उनका जीवन माटी से सने हीरे की तरह होता है । प्रतिभा की महत्ता उसके सुनियोजन में होती है । इस जगत् में लोग अच्छा भाषण दे लेते हैं, साहित्य-सृजन कर सस्ती वाहवाही भी लूट लेते हैं, परन्तु कवि की रुचि अपनी प्रखर साधना और प्रतिभा द्वारा समय और समाज के अवांछित प्रवाह को अनुकूल दिशा में मोड़ना है । इस महत् काम के लिए उसने अपने तन को दीपक, लोहू को तेल और प्राणों को बाती बना कर जगत् को प्रकाशित करने का सार्थक काम किया है। 'मूकमाटी' एक काव्य ही नहीं, जैन मत की सैद्धान्तिक व्याख्या नहीं, अपितु भावनामय नैतिक जीवन जीने की परिष्कृत दृष्टि है। इसके आधार पर जीवन जीनेवाला मानवीय मूल्यों का संरक्षक एवं प्रचारक-प्रकाशक होता है। उसके अन्तर में पवित्रता, मन में सबके प्रति मैत्री-भाव, शान्ति एवं सन्तोष होता है । ऐसा व्यक्ति कर्मनिष्ठ, श्रमशील एवं सहनशक्ति वाला होता है । उसके लिए न तो जाति, देश, काल का कोई बन्धन होता है और न ही किसी बाहरी
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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