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164 :: मूकमाटी-मीमांसा
साथी बन साथ देता है । / आस्था के तारों पर ही साधना की अँगुलियाँ / चलती हैं साधक की, सार्थक जीवन में तब / स्वरातीत सरगम झरती... है ! समझी बात, बेटा?” (पृ. ९)
संस्कृति-सम्पादन का तीसरा सोपान सत्य की पहचान है ।
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'असत्य की सही पहचान ही / सत्य का अवधान है, बेटा !" (पृ. ९)
केवल एक-दो सोपान चढ़ जाने मात्र से संस्कृति के समुन्नत शिखर पर नहीं पहुँच सकते । पर्वत की तलहटी में खड़े होकर भी शिखर का दर्शन कर सकते हैं किन्तु शिखर का स्पर्शन चरणों का प्रयोग किए बिना सम्भव नहीं । उसी प्रकार जीवन-संस्कृति के शिखर पर पहुँचने के लिए चतुर्थ सफल सोपान है प्रयोग अर्थात् साधना के साँचे में स्वयं को
ढालना :
"आस्था के विषय को / आत्मसात् करना हो
उसे अनुभूत करना हो / ... तो / साधना के साँचे में स्वयं को ढालना होगा सहर्ष !" (पृ. १०)
साधना के सोपानों पर चढ़ते चढ़ते कभी-कभी फिसल जाने की सम्भावना होती है और कभी-कभी थकावट महसूस करने की गुंजाइश भी है। इसलिए इस स्खलन से बचने के लिए 'आयास से डरना नहीं' और 'आलस्य करना नहीं' (पृ. ११) ।
साधक के रास्ते में विषमता की नागिन सरकती होगी। उससे वह गुम-राह हो सकता है। उसके मुख से ग़मआह निकल सकता है । उस समय बोधि की चिड़िया फुर्र से उड़ जाती है। क्रोध भी उभरकर आ जाता है । इनको दूर करने मात्र से ही आराधना में विराधना आना असम्भव हो जाता है ।
कभी-कभी गति या प्रगति के अभाव के कारण आशा ठण्डी पड़ जाती है । धृति, साहस, उत्साह भी आह भरते हैं और मन खिन्न पड़ जाता है । साधक के लिए ये सब अवरोध नहीं ।
नदी जीवन की चैतन्य प्रवृत्ति का प्रतीक है । चैतन्य प्रवृत्ति के कारण ही फूल-मालाएँ आ-आकर टकराती हैं। कुम्भकार स्वयं भाग्य-विधाता है :
'कुं' यानी धरती / और / 'भ' यानी भाग्य - यहाँ पर जो / भाग्यवान् भाग्य-विधाता हो कुम्भकार कहलाता है ।" (पृ. २८)
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धर्म
वही शिल्पी है । वही संस्कृति का निर्माता है, आध्यात्मिकता का प्रदाता है । वही संस्कृति शिल्पी दया, और करुणा रूपी मूर्तियों का निर्माण किया करता है । केवल प्रसंग से काम नहीं चलता :
“जिसे अपनाया है / उसे / जिसने अपनाया है उसके अनुरूप / अपने गुण - धर्म - / रूप - स्वरूप को परिवर्तित करना होगा ।" (पृ. ४७ )
गुण, धर्म, रूप और स्वरूप में जो परिवर्तित हो जाता है, वही मनुष्य है :