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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 159 कि व्यक्ति अपने दोषपूर्ण चिन्तन-मनन और विकृत मनःस्थिति के कारण अपनी जीवनी-शक्ति का क्षरण करता है, प्रतिभा एवं सृजनात्मक शक्ति का विनाश करता है : “जिसे अपनाया है/ उसे / जिसने अपनाया है / उसके अनुरूप अपने गुण - धर्म - / ... रूप-स्वरूप को / परिवर्तित करना होगा वरना / वर्ण संकर- दोष को / ... वरना होगा !” (पृ. ४७-४८ ) प्रस्तुत महाकाव्य चार खण्डों में विभक्त है । खण्ड- एक का नामकरण 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' दिया गया है। इसी तरह खण्ड - दो 'शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं '; खण्ड-तीन 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन' तथा खण्ड - चार 'अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' है । खण्डों के इस तरह के नामकरण की व्याख्या करना किसी अन्य मावलम्बी के लिए कठिन काम है । सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने इनकी विवेचना 'प्रस्तवन' में की है । 'मूकमाटी' के खण्ड विभाजन, नामकरण और कथानक को ले कर कई रोचक और महत्त्वपूर्ण सवाल पैदा हो सकते हैं। मसलन यह कुम्भकार कौन है और वह कुम्भ का निर्माण क्यों करना चाहता है ? 'मानस - तरंग' में सन्त कवि ने जो मुद्दे उठाए हैं उनमें न तो उसने यह बताया है कि यह कुम्भकार ( रचयिता, निर्माता या कर्त्ता ) क्या है ? कहाँ से आया रचना का काम करता ही क्यों है ? यह परमात्मा या ईश्वर तो है नहीं, क्योंकि जैन संस्कृति ईश्वर को सृष्टिकर्त्ता के रूप पहले ही नकार चुकी है। श्रमण संस्कृति ने अवतारवाद और देववाद को भी देश निकाला दे दिया है। तब, सवाल यह पैदा होता है कि जैन धर्म सृष्टि के मूलभूत तत्त्वों के उत्पन्न होने के विषय में क्या कहता है ? वेदों के अनुसार आत्मापरमात्मा और प्रकृति - ये तीनों अनादि तत्त्व हैं, अजन्मा और स्वयं स्वाधीन हैं। जैन मत वेदों की उक्त मान्यता को भी स्वीकार नहीं करता । कवि के शब्दों में : "ब्रह्मा को सृष्टि का कर्त्ता, विष्णु को सृष्टि का संरक्षक और महेश को सृष्टि का विनाशक मानना मिथ्या है, इस मान्यता को छोड़ना ही आस्तिकता है । अस्तु । ऐसे ही कुछ मूलभूत सिद्धान्तों के उद्घाटन हेतु इस कृति का सृजन हुआ है और यह वह सृजन है जिसका सात्त्विक सान्निध्य पाकर रागातिरेक से भरपूर शृंगार रस के जीवन में भी वैराग्य का उभार आता है" ('मानस-तरंग', पृ. XXIV) । उक्त मूलभूत सिद्धान्त, सम्प्रदाय विशेष से, उनकी भावनाओं एवं जीवन-मूल्यों से सम्बन्धित हैं। अत: इनकी समीक्षा न करना ही उचित होगा । 'मूकमाटी' वस्तुतः एक प्रतीकात्मक एवं रूपकाश्रित महाकाव्य है । कवि का ही नहीं, भारतीय मनीषा का भी मानना है कि जब से हमने विज्ञान के प्रत्यक्षवाद को ही सब कुछ मानना शुरू कर दिया है, तब से समाज की संरचना में बहुत बदलाव आ गया है । विज्ञान ने सृष्टि के संचालन के पीछे किसी समर्थ सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकार करके जहाँ अन्धविश्वासों और कुरीतियों के उन्मूलन में महत् योगदान किया है, वहीं अनीश्वरवादीभोगवादियों को भी ज़रूरत से अधिक समाज के सिर पर थोप दिया है। परिणामस्वरूप पूरे विश्व में एक अराजकताआतंकवादी समाज पैदा हो गया है। यह अनैतिक, अनाचार एवं अत्याचारियों का समाज है। श्री आर. ड्यूब्स ने अपनी रचना 'सो ह्यूमन एज एनीमल' में ठीक ही लिखा है : " अराजकता को समाप्त करने के लिए हमें ईश्वर और मनुष्य के बीच पुन: वही सम्बन्ध स्थापित करना पड़ेगा, जो प्राचीन काल में था और जिसे कभी संसार की सर्वोपरि सत्ता के रूपं में स्वीकार किया गया था ।” कवि विद्यासागर के पास इस समस्या का समाधान क्षमादान और हृदय परिवर्तन है : " सेठ का इतना कहना ही / पर्याप्त था, कि / संकोच संशय समाप्त हुआ दल का और/ डूबती हुई नाव से / दल कूद पड़ा धार में / ... आतंकवाद का अन्त और/ अनन्तवाद का श्रीगणेश !" (पृ. ४७७-४७८)
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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