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158 :: मूकमाटी-मीमांसा से यह सन्देश दिया है कि आधुनिक युग में एक नवीन मानव-धर्म की संरचना करनी चाहिए और उसका परिपालन करते रहने के अनुरोध के साथ ही उपेक्षा करने वालों के प्रति कठोरता बरतनी चाहिए। ताकि :
“यहाँ "सब का सदा/जीवन बने मंगलमय/छा जावे सुख-छाँव, सबके सब टलें-/वह अमंगल-भाव,/सब की जीवन लता हरित-भरित विहँसित हो/गुण के फूल विलसित हों।
नाशा की आशा मिटे/आमूल महक उठे/"बस ।” (पृ. ४७८) 'मूकमाटी' के कवि का विश्वास है कि चिन्तन में उत्कृष्टता, चारित्र में आदर्शवादिता और आचरण में सत्य, अहिंसा तथा सुजनता का समावेश हो तो नए युग की आवश्यकता के अनुरूप नए समाज का स्वरूप और उसकी आचारसंहिता तैयार की जा सकती है और जन-जन से उसका पालन कराया जा सकता है। बढ़ते हुए बुद्धिवाद और विज्ञान ने दुनिया को सीमित कर दिया है । अध्यात्म की मनमानी खींचतान ने संसार में विषमता और विभेदों की भरमार कर दी है। यह व्यवस्था अब अधिक दिनों तक नहीं चल सकती है। अब हमें एकता और समता की नीति चलानी होगी तथा एक देश, एक भाषा, एक धर्म, एक दर्शन को अपनाकर चलना होगा । विवेकशीलता के धनी कवि ने अपने चिन्तन में इसी विश्वास को बल दिया है :
"सर के बल पर क्यों चल रहा है,/आज का मानव ? इस के चरण अचल हो चुके हैं माँ !/आदिम ब्रह्मा आदिम तीर्थंकर आदिनाथ से प्रदर्शित पथ का/आज अभाव नहीं है माँ !/परन्तु, उस पावन पथ पर/दूब उग आई है खूब!/वर्षा के कारण नहीं, चारित्र से दूर रह कर/केवल कथनी में करुणा रस घोल
धर्मामृत-वर्षा करने वालों की/भीड़ के कारण !" (पृ. १५१-१५२) 'कामायनी' की तरह 'मूकमाटी' का आरम्भ भी 'विराट्' चिन्तन से हुआ है। 'कामायनी' में 'हिमगिरि के उत्तुंग शिखर' पर बैठा ‘एक पुरुष' भीगे नयनों से अनन्त जल राशि को देख रहा है, जबकि 'मूकमाटी' में “सीमातीत शून्य में/नीलिमा बिछाई,/और "इधर "नीचे/निरी नीरवता छाई" (पृ. १) है। कवि ने इस महाकाव्य में प्राकृतिक परिवेश को तो महाकाव्य की गरिमा के अनुरूप रखा ही है, प्रकृति के अन्य उपादानों जैसे चाँद, पवन, सुरभि, कमल, कुमुदिनी, वन, पर्वत, सरितादि का भी विस्तृत किन्तु रूपकाश्रित चित्रण किया है । यह सारा परिदृश्य एक बिन्दु पर आकर भूलभूत दार्शनिक प्रश्न पर केन्द्रित हो जाता है :
"इस पर्याय की/इति कब होगी ?/...बता दो, माँ"इसे!
...पद दो, पथ दो/पाथेय भी दो माँ !" (पृ. ५) एक विलक्षण महाकाव्य के रूप में 'मूकमाटी' का सन्देश यह है कि अपने को उठाना या गिराना मानव के अपने हाथ की बात है । सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा, साहस, उत्साह, पराक्रम और निश्चित विश्वास के आधार पर मनुष्य ऊँचा उठ सकता है । इसके विपरीत उक्त गुणों से रहित, हीन भावनाओं से ग्रस्त, दु:ख, निराशा, उद्विग्नता, अविश्वास और आशंकाओं से घिरे व्यक्ति भौतिक उन्नति करके भी आत्मिक पतन की ओर अग्रसर होते जाते हैं। करुणा और प्रेम, दया और दान से व्यक्ति आन्तरिक उल्लास का, शान्ति और सुख का अनुभव करता है । कवि की मान्यता है