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मूकमाटी-मीमांसा :: 157 अशरीरी परमात्मा ने सृष्टि की रचना नहीं की तो फिर यह किस शक्ति अथवा सत्ता की करामात है ? क्या यह सृष्टि अपने-आप पैदा हो गई और यदि ऐसा हुआ भी तो इसके पीछे प्रयोजन क्या था ? आचार्यश्री को भूतकाल के अनौचित्य, वर्तमान के दुराग्रह और भविष्य को ध्यान में रखकर ऐसे उपायों की खोज करनी चाहिए थी जिनसे आज के विग्रहों के आधार टलते और संसार में एकता - समता एवं औचित्य के द्वार खुलते । दुःख की बात है कि आधुनिक जगत् में अध्यात्म-क्षेत्र की इस महती आवश्यकता की कवि ने अनदेखी कर दी है । न्याय, औचित्य और विवेक का समुचित आश्रय न ले कर कवि ने पूर्वाग्रहों से युक्त हो कर अपनी दृष्टि की सीमा बाँध दी है। परिणामस्वरूप जिस महाकाव्य को जन-जीवन का कण्ठहार बनना चाहिए था, वह कुछ गलों का हार बन कर शोभा बढ़ाने तक सीमित हो गया है। 'मूकमाटी' के 'प्रस्तवन' में श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने लिखा है : "यह प्रश्न उठाना अप्रासंगिक न होगा कि 'मूकमाटी' को महाकाव्य कहें या खण्ड काव्य या मात्र काव्य । महाकाव्य की परम्परागत परिभाषा के चौखटे में जड़ना सम्भव नहीं है।” इस सम्बन्ध में इस समीक्षक का अपना निजी विचार है कि 'मूकमाटी' एक काव्य तो है ही, महाकाव्य भी है । परम्परागत भारतीय काव्यशास्त्रियों ने 'महाकाव्य' की जो परिभाषा दी है, उनमें से कुछ को छोड़ कर अधिकतर लक्षण 'मूकमाटी' में पाए जाते हैं । इन लक्षणों की चर्चा ऊपर की गई है। यह एक नायिका प्रधान महाकाव्य है । माटी चाहे जितनी भी तुच्छ हो, भारतीय जीवन में उसे धरती माता के रूप में मान्यता दी गई है । हिन्दू शादी-विवाहों के अवसर पर माटी की पूजा का प्रचलन उसे गरिमा प्रदान करने के लिए ही की जाती है। इस ही नाम वसुधा, वसुमती, वसुन्धरा, रत्नगर्भा, धरती, धरित्री आदि है। राम से परित्यक्त होकर सीता ने इसी माटी से कहा था- “भगवति वसुन्धरे ! देहि मे अन्तरम् (विवरम् ) !” वेदों में कहा गया : “द्यौः मे पिता, पृथ्वी मे माता ।” अत: माटी तुच्छ नहीं, महनीय है। माटी में सहन करने की अपूर्व क्षमता और क्षमा की असाधारण शक्ति है । कबीरदास
शब्दों में : 'खोद - खाद धरती सहे और से सहा न जाइ ।” कविवर विद्यासागर ने माटी की इसी सहनशीलता में 'चरम तुच्छता' का दर्शन किया है और 'चरम तुच्छता में' चरम भव्यता के दर्शन करके... कविता को अध्यात्म के साथ अभेद की स्थिति में पहुँचाया है। माटी की तुच्छता में चरम भव्यता को देखना कवि की परम उदात्तता का सूचक है। उसने एकाधिक स्थलों पर इस तुच्छ माटी को महिमा मण्डित किया है।
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*... वह / धृति-धारिणी धरती / कुछ कहने को आकर्षित होती है, सम्मुख माटी का / आकर्षण जो रहा है !" (पृ. ७)
पहले ही कहा जा चुका है कि 'मूकमाटी' एक नायिका प्रधान महाकाव्य है । आधुनिक हिन्दी महाकाव्यों की परम्परा में दो प्रमुख नायिका प्रधान महाकाव्य हमारे सामने हैं - श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय कृत 'प्रिय प्रवास' और श्री दिनकर रचित 'उर्वशी' । इनमें योगिराज अरविन्द लिखित 'सावित्री' का उल्लेख जानबूझ कर मैंने नहीं किया है, क्योंकि वह मूल रूप से अंग्रेजी भाषा में लिखा गया है । मध्ययुगीन सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी रचित महाकाव्य को भी हम नायिका प्रधान महाकाव्य के रूप में ले सकते हैं । कहने का मतलब यह कि भारतीय महाकाव्यों की परम्परा में नायिका प्रधान महाकाव्यों की रचना कोई नई परम्परा नहीं है और न तुच्छ, किंवा उपेक्षित पात्रों को काव्य का विषय बनाना ही । आखिर इसी शती में उर्मिला, यशोधरा, कर्ण और एकलव्य जैसे पात्रों को महाकाव्य का विषय बनाया गया है या नहीं ? फिर माटी को इससे वंचित क्यों रखा जाय ?
'मूकमाटी' में कवि ने युग जीवन पर व्यापक दृष्टि तो डाली ही है, साथ ही उसने यह भी बताया है कि आधुनिक सम्प्रदाय अनुपयुक्त हो गए हैं, अत: सबको सब कुछ करने की छूट नहीं दी जा सकती। ऐसी छूट प्रकारान्तर से अनीति को प्रोत्साहन देती है और जीवन में उपेक्षापूर्ण रिक्तता पैदा करती है। इस महाकाव्य में कवि ने प्रकारान्तर