________________
156 :: मूकमाटी-मीमांसा
'मूकमाटी' एक तत्त्व ज्ञान सम्पन्न दर्शन, अध्यात्म और आत्मीयता का महाकाव्य है । इसमें विचारों की प्रधानता है, विवरण या विवेचन की नहीं। मनुष्य में विचार ही वह शक्ति है जो उसे अन्य प्राणियों से भिन्न करती है। विचारणा ही वह शक्ति है, जो मानव को भौतिक सुविधाएँ जुटाने से लेकर मोक्ष तक का पथ प्रशस्त करती है । विचार का प्रथम चमत्कार व्यक्ति को सक्रिय बनाना, जीवन के उद्देश्य, स्वरूप और सही किन्तु उपयोगी जानकारी देना है। विचार शक्ति का मूल्य और महत्त्व जिसकी समझ में आ जाता है, वह प्रभु प्रदत्त इस विभूति का उपयोग परम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए करता है । परिणामस्वरूप उसका अपना सारा जीवन तो बदल ही जाता है, उसका प्रत्येक क्रियाकलाप उत्कृष्टता और नैतिकता से ओतप्रोत हो जाता है । यही मानव-जीवन का गौरव और आनन्द है । विचारशीलता का सहारा लेकर जीना ही सार्थक माना जाता है । प्रस्तुत महाकाव्य में कवि विद्यासागरजी ने विचारशीलता के लिए"जिन-शासन के धर्मोपदेश को आधार बनाकर अपने मत की पुष्टि' ('मानस-तरंग' में) की है । इस मत के अनुसार : "श्रमण-संस्कृति के सम्पोषक जैन-दर्शन ने बड़ी आस्था के साथ ईश्वर को परम श्रद्धेय-पूज्य के रूप में स्वीकारा है, सृष्टि-कर्ता के रूप में नहीं' (वही, पृ. XXIII)।
ब्रह्मा को सृष्टि का कर्ता, विष्णु को सृष्टि का संरक्षक और महेश को सृष्टि का विनाशक न मानने वाले जैन धर्म को भारतीय दर्शन में 'नास्तिक' कहा जाता है । अत: कवि की धर्म विषयक मान्यताएँ सबके लिए ग्राह्य नहीं हो सकती हैं। कवि ने अनासक्त चित्त से काव्य करुणा की जो पयस्विनी प्रवाहित की है, वह एक सीमित वर्ग की काव्यपिपासा को ही शान्त कर सकती है । इसे हम कवि की मजबूरी ही कह सकते हैं कि समग्र मानव जाति का हित-साधन करने की सामर्थ्य एवं प्रतिभा रखते हुए भी वह साम्प्रदायिक सिद्धान्तों की जकड़ से अपने को मुक्त न कर सका है। जहाँ मानव-संस्कृति का जयगान करना चाहिए था, वहाँ उसने अपनत्व से काम लिया।
___भारत में ही नहीं विश्व के सभी सम्प्रदायों में ऐसे अनेक बेतुके प्रचलनों की भरमार है, जिनका विवेक की कसौटी पर कोई औचित्य नहीं है । तथापि इनके मतावलम्बी पुरातन मान्यताओं में सुधार की बात कहने तक को अधर्म मानते हैं। आज की आवश्यकता है कि न्याय, औचित्य और विवेक का आश्रय लिया जाए और पूर्वाग्रहों, अन्ध-विश्वासों से अपने दृष्टिकोण को मुक्त रखा जाए। अपने आग्रहों को ईश्वर, पैगम्बर, देवतादि का कथन न बताया जाए। आज, हमें स्वतन्त्र चिन्तन का आश्रय लेना चाहिए और प्रचलित मत-मनान्तरों की श्रेष्ठता, उपयोगिता आदि के चक्कर में न पड़ कर नई जीवनदृष्टि अपनानी चाहिए। मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि 'मूकमाटी' महाकाव्य में कवि ने बहुत कुछ नया और अलौकिक दिया है, किन्तु जीवन-दृष्टि वही पाँच हजार साल पुरानी रहने दी है।
धर्म का सही स्वरूप अध्यात्म है। धर्म को ही जीवन का उत्कृष्ट दृष्टिकोण कहा जाता है । इसी के आधार पर जो देखा-जाना और अनुभव किया जाता है, सम्प्रदाय वाले उसी को सही मानकर जुड़े रहते हैं। धर्म मनुष्य की सबसे पुरानी परम्परा है । उसके स्वरूप और सिद्धान्तों में जमीन-आसमान का अन्तर होते हुए भी उन सभी के अनुयायी अपनी-अपनी परम्पराओं पर इतने कट्टर हैं कि उनके औचित्य और यथार्थता पर पुन: विचार नहीं करते।
प्रस्तुत महाकाव्य में कवि विद्यासागरजी ने 'जैन शासन के धर्मोपदेश को आधार बनाकर' अपने मत की पुष्टि के लिए वाणी की परमात्म प्रदत्त सम्पदा का समुचित उपयोग किया है । वैसे जैन मतानुसार ईश्वर इस सृष्टि का कर्ता नहीं है और उसे परमात्मा के औपचारिक रूप में स्वीकार किया गया है। 'मानस तरंग' में कवि ने स्वीकार किया है : "किसी भी कार्य का कर्ता कौन है और कारण कौन ?' इस विषय का जब तक भेद नहीं खुलता, तब तक ही यह संसारी जीव मोही, अपने से भिन्नभूत अनुकूल पदार्थों के सम्पादन-संरक्षण में और प्रतिकूलताओं के परिहार में दिनरात तत्पर रहता है।" 'मानस तरंग' में कवि ने कुछ अति महत्त्व के प्रश्न उठाए हैं। परन्तु उनका विवेक सम्मत उत्तर नहीं दे सके हैं। जैसे अशरीरी होकर ईश्वर असीम सृष्टि की रचना तो दूर, छोटी-मोटी क्रिया भी नहीं कर सकता ? यदि