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________________ मूकमाटी-मीमांसा :: 155 कह कर जहाँ कवि की प्रशंसा की गई है, वहीं न पश्य मम पश्य ममार काव्यम्' के द्वारा जगत् को परम पिता की रचना होने का भी संकेत दिया गया है। भारत के प्राचीन मनीषियों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से काव्य को परिभाषा में बाँधने का प्रयास किया है, परन्तु काव्य को किसी विशेष परिभाषा में आबद्ध नहीं किया जा सका है । काव्य न तो 'शब्दार्थों सहितौ' (भामह) है और न 'वाक्यं रसात्मकम्' (विश्वनाथ)। काव्य वस्तुत: करुणा के विस्तार हेतु वाणी का वह विशिष्ट विधान है जिसमें उदात्त संवेदनाएँ तथा रसमय भावानुभूतियाँ होती हैं, जो मन को आनन्द की सीमा तक ले जाती हैं। महाकवि भवभूति ने 'करुणा' को ही काव्य की पहली अनिवार्यता स्वीकार की है- 'एको रस: करुण एव निमित्तभेदात् ।' 'मूकमाटी' महाकाव्य में आदि से अन्त तक करुणा-प्रेम-सत्य और अहिंसा की धाराएँ प्रवाहित हुई हैं। इनमें भी सबसे उल्लेखनीय है-करुणा । यही इस महाकाव्य का मूलाधार भी है और उपजीव्य भी। परम्परावादी रस शास्त्रियों के लिए 'मूकमाटी' करुण रस प्रधान महाकाव्य है, जिसमें अन्य रस आनुषंगिक हैं। इस पर आगामी पृष्ठों में विचार होगा। इस समय प्रसंग करुणा का है। पश्चिमी विचारक ‘प्लेटो' के समय में एक बार यह विवाद उठा था कि क्या काव्य समाज या व्यक्ति के नैतिक तथा आध्यात्मिक जीवन को बल प्रदान कर सकता है ? प्लेटो काव्य को इसी कसौटी पर कसता था । वह कविता को अनुकरण तथा कवियों को यश और कीर्ति के लिए पाठकों की वासनाओं को उत्तेजित कर उन्मादग्रस्त प्रकृति का चयन करने वाला कहता था। उसकी बातों में कितनी सच्चाई थी, इसकी गवाही आज का साहित्य स्वयं दे रहा है । प्लेटो के काव्य सम्बन्धी आक्षेपों का जवाब देने के लिए अरस्तू ने 'पोइटिक्स' नामक ग्रन्थ लिखा। इसके अनुसार : "करुणा और त्रास के उद्रेक द्वारा मनोविकारों का उचित विरेचन किया जा सकता है।" अरस्तू के इस सिद्धान्त को 'विरेचन' का नाम दिया गया है। 'मूकमाटी' के 'महाकाव्यत्व' के प्रसंग में अरस्तू के विरेचन और भारतीय करुणावाद की चर्चा इसलिए की जा रही है, क्योंकि इस महाकाव्य की आत्मा ही करुणावतार है और संवेदनाओं की जननी भी यही है । अरस्तू के अनुसार करुणा के आस्वाद की समस्या का समाधान विरेचन और आनन्द द्वारा होता है । करुणा और त्रास में निहित अनिष्ट भावना के नष्ट होने से हर तरह की मानसिक शान्ति का अनुभव होता है । इस महाकाव्य में भी कहा गया है कि चित्त की विशदता के दो रूप हैं- भावात्मक और अभावात्मक । प्रथम के अनुसार मन की शान्ति ही आनन्द है । दूसरे के अनुसार दुःखों का अभाव ही मन को शान्ति दे सकता है । अरस्तू की तरह कवि भी यह मानता है कि जीवन करुणावाद पर आश्रित है और करुणा में ही आनन्द है । सत्य की उपलब्धि में आनन्द का निवास होता है । आनन्द करुणा का सकारात्मक रूप है। जिस प्रकार अनन्त लहरों को आत्मसात् किए सागर समाधिस्थ बना रहता है, उसी तरह अनेक करुण-मधुर अनुभूतियाँ चेतना की अन्तर्धाराएँ बनकर प्रवाहित होती रहती हैं । महाकाव्य चाहे शृंगारमूलक हो या करुणामूलक वह सहृदय के मन को शृंगार और करुण की लौकिक/अलौकिक अनुभूति कराता ही है । देखिए : "हाँ ! हाँ !!/अधूरी दया-करुणा/मोह का अंश नहीं है/अपितु आंशिक मोह का ध्वंस है।/वासना की जीवन-परिधि/अचेतन है"तन है दया-करुणा निरवधि है/करुणा का केन्द्र वह/संवेदन-धर्मा'"चेतन है पीयूष का केतन है ।/करुणा की कर्णिका से/अविरल झरती है समता की सौरभ-सुगन्ध;/ऐसी स्थिति में/कौन कहता है/कि करुणा का वासना से सम्बन्ध है !" (पृ. ३९)
SR No.006155
Book TitleMukmati Mimansa Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhakar Machve, Rammurti Tripathi
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2007
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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